संपादकीय: सजा और संदेश
शर्मा के तबादले जैसा कदम उठा कर राव ने न सिर्फ विवेकहीनता का परिचय दिया, बल्कि उससे एक पुलिस अधिकारी के उस दंभ को भी प्रकट किया, जिसमें अपने को अदालत से ऊपर मान कर चलने की दुष्प्रवृत्ति झलकती है।

अदालत की अवमानना के मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) के पूर्व अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव और एजेंसी के कानूनी सलाहकार को सर्वोच्च अदालत ने जो सजा दी, उसका बड़ा संदेश गया है। संदेश यह है कि कोई कितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हों, वह कानून से ऊपर नहीं है और उसे विधि के शासन को मानना ही होगा। दोनों अधिकारियों को अदालत उठने तक एक कोने में बैठा दिया गया और एक-एक लाख का जुर्माना भी लगाया गया। यह अदालत की सर्वोच्चता और सम्मान से जुड़ा मसला है। सवाल है कि अगर सर्वोच्च अदालत के फैसलों-आदेशों की अवहेलना होने लगेगी, तो लोकतंत्र का यह सबसे महत्त्वपूर्ण स्तंभ कैसे काम कर पाएगा और कैसे इसके अस्तित्व की रक्षा हो पाएगी! कैसे हम निष्पक्ष न्याय की कल्पना कर पाएंगे? सर्वोच्च अदालत का काम संविधान की रक्षा और न्याय सुनिश्चित करना है। लेकिन नागेश्वर राव का प्रकरण बताता है कि हमारे नौकरशाहों में अपने को कानून से ऊपर मान कर चलने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है। यह अच्छा संकेत नहीं है।
नागेश्वर राव ने सीबीआइ के अंतरिम निदेशक की जिम्मेदारी संभालने के बाद जिन अफसरों का तबादला किया था, उन्हीं में बिहार के मुजफ्फरपुर आश्रय गृह मामले की जांच करने वाले सीबीआइ के संयुक्त निदेशक एके शर्मा भी थे। शर्मा को इस जांच की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही सौंपी गई थी। जाहिर है, बिना सर्वोच्च अदालत की अनुमति के शर्मा का तबादला नहीं किया जा सकता था। मगर उन्हें सीबीआइ से हटा कर सीआरपीएफ के अतिरिक्त महानिदेशक के पद पर भेज दिया गया। ऐसा कर नागेश्वर राव ने सर्वोच्च अदालत की तौहीन की। इस फैसले पर पहला सवाल तो यही उठा कि आखिर नागेश्वर राव एक गंभीर मामले की जांच के लिए अदालत की ओर से नियुक्त अधिकारी को क्यों हटाना चाहते थे। इससे यह आशंका जन्म लेती है कि क्या किसी दबाव में आकर राव ने शर्मा का तबादला किया होगा! वरना शर्मा के तबादले की वजह क्या हो सकती थी।
जिस तरह सीबीआइ के पूर्व अंतरिम निदेशक ने सर्वोच्च अदालत के आदेश को धता बताई, उससे उनके विवेक पर सवाल खड़े होते हैं। सीबीआइ निदेशक का पद खाली होने के बाद कार्यवाहक निदेशक के रूप में एजेंसी के प्रमुख की जिम्मेदारी निभाने वाले नागेश्वर राव वष्ठितम आइपीएस अफसरों में हैं। इसलिए सवाल उठता है कि क्या उन्हें यह जानकारी नहीं रही होगी कि जब सर्वोच्च अदालत ने शर्मा के तबादले पर पाबंदी लगा रखी है, तो उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था! अगर करना ही था, तो उसके लिए सर्वोच्च अदालत से अनुमति लेते। शर्मा के तबादले जैसा कदम उठा कर राव ने न सिर्फ विवेकहीनता का परिचय दिया, बल्कि उससे एक पुलिस अधिकारी के उस दंभ को भी प्रकट किया, जिसमें अपने को अदालत से ऊपर मान कर चलने की दुष्प्रवृत्ति झलकती है। नागेश्वर राव ने जरा भी नहीं सोचा कि वे जिस ओहदे पर हैं उसकी एक गरिमा है, उनके अधीनस्थ साथी उनके रुख का अनुसरण करने लगेंगे तो क्या होगा? हाल में सीबीआइ जैसे शीर्ष जांच संस्थान की साख को इसके सर्वोच्च अधिकारियों की वजह से काफी धक्का लगा है। पहले शीर्ष अफसरों ने एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, और फिर एक अंतरिम प्रमुख ने सर्वोच्च अदालत को कमतर आंकने का दुस्साहस किया। सवाल है कि ऐसे अधिकारी होंगे तो कैसे निष्पक्ष और सुशासन की कल्पना की जा सकती है!
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