उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह बात राज्यसभा में कही। जाहिर है, सरकार ने कालेजियम प्रणाली को समाप्त करने को लेकर एक बार फिर कमर कस ली है। हालांकि पिछले कार्यकाल से ही वर्तमान केंद्र सरकार इस प्रणाली के खिलाफ रही है। उसका तर्क है कि कालेजियम प्रणाली के तहत ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में पक्षपात होता और भाई-भतीजावाद चलता है। सरकार चाहती है कि जिस तरह तमाम विभागों और संस्थानों में सर्वोच्च पदों पर नियुक्तियां वह खुद करती है, उसी तरह न्यायाधीशों की नियुक्ति भी उसी की मर्जी से हो। मगर सर्वोच्च न्यायालय इसे राजनीतिक दखलअंदाजी के रूप में देखता है।
वर्षों तक ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति केंद्र के फैसले से होती रही, मगर देखा गया कि उसमें सरकार अपने करीबी लोगों को तरजीह देती है, इसलिए कालेजियम प्रणाली लागू की गई। तब तर्क दिया गया कि चूंकि न्यायाधीश निचली अदालतों के न्यायाधीशों और वकालत कर रहे लोगों की प्रतिभा और क्षमता को बहुत नजदीक से जानते हैं, इसलिए उनमें से जज के रूप में चुनाव करने में उन्हें अधिक आसानी होगी। उसमें भी अंतिम निर्णय सरकार को ही लेना होता है, मगर वह एक तरह से चुने गए नामों पर अपनी स्वीकृति देने का होता है।
हालांकि कुछ वर्षों बाद कालेजियम प्रणाली पर भी सवाल उठने शुरू हो गए कि वह अपने करीबी लोगों को ही उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में भेजती है। इस आधार पर सरकार ने कालेजियम प्रणाली को समाप्त कर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने संबंधी विधेयक संसद में पेश किया, जिसे सभी दलों ने आम सहमति से पारित कर दिया था। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे संविधान की मंशा के खिलाफ मानते हुए रद्द कर दिया। तभी से यह तनातनी बनी हुई है और रह-रह कर सार्वजनिक रूप से उभर आती है।
निस्संदेह ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला न्याय-व्यवस्था की साख से जुड़ा है। उच्च और उच्चतम न्यायालय के प्रति देश के लोग इंसाफ के लिए बड़े भरोसे के साथ देखते हैं। हालांकि अधिकांश मामलों में ऊपरी अदालतों ने अपनी साख कायम रखी है और संविधान के प्रति उसकी निष्ठा प्रकट होती है। मगर कुछेक मामलों में अगर उदाहरण दिए जाते हैं कि जज का बेटा ही सर्वोच्च न्यायालय का जज बनता है, तो इस तरह के आरोप से मुक्त होने की जवाबदेही भी खुद सर्वोच्च न्यायालय पर आ जाती है।
मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि न्यायालयों में राजनीतिक दखलअंदाजी से नियुक्तियां होंगी, तो उनके निष्पक्ष होने को लेकर सवाल उठते रहेंगे। किसी भी न्याय-व्यवस्था को इस तरह संदेह और सवालों के घेरे में डाले रखना उचित नहीं माना जा सकता। मगर जिस तरह सरकार और न्यायालय के बीच तनातनी चल रही है, वह भी ठीक नहीं। इसमें जल्दी ही बीच का कोई सर्वमान्य रास्ता निकलना चाहिए।