विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने फिलहाल विदेशी विश्वविद्यालयों को दस साल के लिए मंजूरी देने का प्रावधान रखा है। उनके प्रदर्शन को देखते हुए नौ साल बाद फिर उनका नवीकरण किया जाएगा। दाखिला प्रक्रिया और शुल्क निर्धारण के मामले में इन विश्वविद्यालयों को स्वतंत्रता होगी। पर इससे यह सुविधा तो होगी कि बहुत सारे भारतीय विद्यार्थियों को अपने देश में रह कर ही विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को पढ़ने की सुविधा मिल जाएगी। बहुत सारे विद्यार्थी इसलिए बाहरी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने जाते हैं कि यहां के विश्वविद्यालयों में वैसे पाठ्यक्रम नहीं हैं, जो उनमें हैं। अब वे पाठ्यक्रम अपने देश में भी उपलब्ध हो सकेंगे। इससे स्वाभाविक ही अपने यहां के सरकारी और निजी विश्वविद्यालय भी उनकी प्रतिस्पर्धा में ऐसे पाठ्यक्रम शुरू करने का प्रयास करेंगे।
हमारे यहां एक बड़ी समस्या यह भी है कि बढ़ती आबादी के अनुपात में स्कूल-कालेज और विश्वविद्यालय खोलना सरकार की क्षमता से बाहर होता गया है। शिक्षा पर अपेक्षित बजट न होने के चलते सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना चुनौती बना हुआ है। ऐसे में निजी संस्थानों को प्रोत्साहित किया जाने लगा। इस तरह निजी स्कूल और कालेजों की बाढ़ तो आ गई, मगर उनमें मिलने वाली शिक्षा की कीमत चुकाना हर किसी के वश की बात नहीं रह गई है। इसलिए भी निजी शिक्षण संस्थान सदा आलोचना का विषय रहे हैं।
हालांकि बहुत सारे निजी शिक्षण संस्थानों ने विदेशी विश्वविद्यालयों के अनुरूप पाठ्यक्रम और शैक्षणिक वातावरण देने का प्रयास करते हैं, पर इस पहलू पर भी असंतोष ही देखा जाता है। ऐसे में विदेशी विश्वविद्यालयों के हमारे यहां परिसर खुलेंगे, तो यहां के निजी शिक्षण संस्थानों पर भी उनसे प्रतिस्पर्धा पैदा होगी। फिर उन विश्वविद्यालयों में बहुत सारे प्रतिभावान लोगों को शिक्षण के अवसर भी पैदा होंगे। प्रतिभा पलायन पर कुछ हद तक रोक लगने की गुंजाइश भी बनेगी। जो मुद्रा विदेशी विश्वविद्यालयों में जा रही है, वह अपने देश में रुक सकेगी।
नई शिक्षा नीति में एक वादा यह भी है कि निजी स्कूलों में शुल्क आदि के निर्धारण का व्यावहारिक पैमाना तय किया जाएगा, जिससे स्कूलों की मनमनी फीस वसूली पर लगाम लगाई जा सके। पर निजी और विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों को इस मामले में छूट क्यों है? पहले ही हमारे यहां उच्च निजी संस्थानों में फीस इतनी ऊंची है कि बहुत सारे विद्यार्थी इसलिए यूक्रेन आदि देशों का रुख करते हैं कि वहां यहां से कम खर्च पर गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई हो जाती है।
अगर इस समस्या पर काबू करने का प्रयास नहीं होगा, तो विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसरों को भी विद्यार्थियों के अभाव से जूझना पड़ सकता है। अब शिक्षा का अर्थ केवल विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम पूरा करा देना नहीं, उनमें कौशल विकसित करना और फिर विदेशी मुद्रा अर्जित करने का माध्यम भी बन गई है। इस तरह अगर विदेशी विश्वविद्यालयों से प्रतिस्पर्धी वातावरण बनेगा, तो इस दिशा में बेहतर नतीजों की उम्मीद बनती है।