हालांकि यह ऐसा विषय है, जिस पर सरकार और न्यायपालिका को मिल कर कोई ठोस हल निकालने का प्रयास करना चाहिए था, लेकिन विडंबना यह है कि फिलहाल कुछ सकारात्मक संकेतों के बावजूद इस समस्या के हल के बिंदु स्पष्ट नहीं हो पा रहे हैं, जबकि इससे जुड़े प्रश्नों से उपजी जटिलताएं अब भी बरकरार हैं। इसी मसले पर अब संसद की एक समिति ने भी हैरानी जताई है कि सरकार और उच्चतम न्यायालय करीब सात साल बाद भी कालिजियम प्रक्रिया ज्ञापन पर आपस में कोई सहमति बनाने में विफल रहे हैं। यह प्रक्रिया ज्ञापन शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्त, पदोन्नति और तबादले से जुड़ा है।
गौरतलब है कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच इस मुद्दे पर पिछले सात साल से विचार-विमर्श चल रहा है और दोनों पक्षों ने इस पर कई मौकों पर आपस में विचारों का आदान-प्रदान किया है। विचित्र है कि जो मामला समूचे न्यायपालिका के ढांचे को प्रभावित करता है और इसका असर मुकदमों की सुनवाई या न्यायिक गतिविधियों की रफ्तार पर पड़Þता है, उसके समाधान तक पहुंचने को लेकर पर्याप्त सक्रियता नहीं दिख रही। जबकि आए दिन यह सवाल उठता रहता है कि देश की विभिन्न अदालतों पर मुकदमों का कितना बोझ है और न्यायालयों की रिक्तियां भरने के मामले में समय पर जरूरी कदम नहीं उठाए जाते।
अदालतों में जजों के खाली पदों के समांतर व्यवस्थागत स्थिति यह है कि सरकार सिर्फ उन्हीं को उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त करती है, जिनकी सिफारिश शीर्ष अदालत के कालिजियम की ओर से की जाती है। कुछ समय पहले कानून मंत्री ने संसद में कहा था कि जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका नहीं बदलेगा, तब तक नियुक्तियों और खाली पदों पर सवाल उठते रहेंगे। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर देश भर की अदालतों में जरूरी तादाद में न्यायाधीश नहीं हैं, तो इसके क्या कारण हैं।
ऐसे में संसदीय समिति की ओर से व्यक्त आश्चर्य स्वाभाविक ही है कि जो मसला कई स्तर पर न्यायिक गतिविधियों को प्रभावित करता रहा है और आज उस पर एक तरह से सरकार और शीर्ष अदालत दो पक्ष बन गए दिख रहे हैं, वह इतने लंबे वक्त से विचार के बावजूद किसी ठोस हल तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि खुद संसदीय समिति की रिपोर्ट में न्याय विभाग की ओर से दिए गए विवरणों के हवाले से बताया गया कि 2021 में उच्च न्यायालय के कालिजियम द्वारा दो सौ इक्यावन सिफारिशें की गई थीं।
यह एक उदाहरण भर है। यह छिपा नहीं है कि देश के न्यायालयों और खासतौर पर निचली अदालतों में मुकदमों के अंबार और न्याय में देरी की क्या वजहें हैं। फिलहाल ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और खाली पदों की समस्या का हल करने के लिए स्पष्ट पहलकदमी की जरूरत है। यों शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन देते हुए केंद्र सरकार ने कहा है कि न्यायिक नियुक्तियों पर जो समय सीमा है, उसका पालन किया जाएगा और लंबित पड़े कालिजियम की सिफारिशों को जल्दी ही मंजूरी दे दी जाएगी। संसदीय समिति की चिंता के बाद अब केंद्र सरकार के रुख से उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधित पक्ष मिल कर इस मुद्दे का एक ठोस हल निकालेंगे।