भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि ब्याज दरों में वृद्धि को रोकना उनके हाथ में नहीं है। परिस्थितियों के अनुसार उन्हें फैसला करना पड़ता है। हालांकि ब्याज दरों में बढ़ोतरी करने से महंगाई पर काबू पाने में काफी मदद मिली है। उपभोक्ता सूचकांक आधारित महंगाई पिछले महीने 4.7 फीसद दर्ज की गई। रिजर्व बैंक का लक्ष्य था कि खुदरा महंगाई को छह फीसद के नीचे लाया जाए। इसमें उसे कामयाबी मिली है। पिछले एक साल में रिजर्व बैंक अलग-अलग चरणों में रेपो दरों में ढाई फीसद की बढ़ोतरी कर चुका है। इसलिए जब पिछले महीने महंगाई काबू में आती दिखी तो उसने रेपो दरों को यथावत रखा। अब उद्योग परिसंघ का दबाव है कि रेपो दरों में कटौती की जाए।
अमेरिकी फेडरल ने अपने यहां ब्याज दरें ऊंची की तो दुनिया भर में हड़कंप मचा
दरअसल, रेपों दरें ऊंची होने से कारोबारियों को बैंकों से लिए जाने वाले कर्ज पर अधिक ब्याज चुकाना पड़ता है, जिसका असर वस्तुओं की उत्पादन लागत पर पड़ता है। मगर जाहिर है, वैश्विक स्थितियों को देखते हुए रिजर्व बैंक के लिए रेपो दरों में कटौती जैसा कदम उठाना जोखिम भरा काम लगता है। अमेरिकी फेडरल ने अपने यहां ब्याज दरें ऊंची कर दीं, तो दुनिया भर के वित्तीय बाजारों से निवेशकों ने अपना पैसा निकालना शुरू कर दिया। इसलिए कि दूसरे देशों की अपेक्षा वहां उन्हें अधिक ब्याज मिलने लगा था।
फिर रिजर्व बैंक अभी इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि खुदरा महंगाई की दर कब तक पांच फीसद के नीचे बनी रहेगी। जबकि शक्तिकांत दास का कहना है कि अगली तिमाही में भी महंगाई की दर में कुछ कमी दर्ज होगी। यहां तक कि आर्थिक विकास दर बढ़ने को लेकर भी आश्वस्त नजर आते हैं। मगर महंगाई को लेकर वे किसी प्रकार का जोखिम मोल नहीं लेना चाहते। रिजर्व बैंक का इस तरह आर्थिक नीतियों को लेकर संशय में रहना अच्छा नहीं माना जा सकता।
यह समझ से परे है कि जब महंगाई की दर नीचे की तरफ है और आर्थिक विकास दर भी बेहतर है, तो फिर रेपो दरों को लेकर ऐसी अनिश्चितता क्यों। रेपो दरें ऊंची रहने से बैंकों में निवेश करने वाले उन ग्राहकों को तो जरूर थोड़ी राहत रहती है, जो ब्याज के मकसद से पैसा जमा करते हैं। उनमें सेवानिवृत्त और छोटी कमाई वाले लोग होते हैं। मगर इससे मकान, वाहन, कारोबार आदि के लिए कर्ज लेने वालों पर ब्याज का बोझ बढ़ता है। इस तरह बाजार में पूंजी का प्रवाह बेशक थोड़ा काबू में रहता है, मगर निवेश की रफ्तार भी धीमी ही रहती है।
आर्थिक विकास दर में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है, बड़े उद्योगों की रफ्तार बढ़नी शुरू हुई है। इसकी वजह से थोक महंगाई भी काबू में आई है। मगर अब भी बड़ी चुनौती निर्यात के मोर्चे पर बनी हुई है। यह अच्छी बात है कि आयात में कमी करके घरेलू उत्पाद को प्रश्रय दिया जा रहा है और इसके चलते व्यापार घाटे में कमी दर्ज हो रही है। मगर निर्यात में लगातार नीचे का रुख बने रहने से औद्योगिक समूहों के सामने चुनौती बनी हुई है। यह भी आर्थिक विकास के लिए अच्छा नहीं माना जाता।
मगर रिजर्व बैंक को इन तमाम स्थितियों का आकलन करने के बाद स्पष्ट रुख रखना चाहिए कि आने वाले समय में कैसा परिदृश्य हो सकता है। आम लोग रिजर्व बैंक की तरफ नजरें लगाए रखते हैं कि वह क्या कदम उठाने वाला है, उसी के मुताबिक निवेश के लिए कदम बढ़ाते हैं।