एक बार फिर किसान अपनी मांगों की याद दिलाने दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंचे। संयुक्त किसान मोर्चा ने महापंचायत की। उसके प्रतिनिधि कृषिमंत्री से मिले और उन्हें याद दिलाया कि जिन वादों के साथ किसान आंदोलन समाप्त हुआ था, उनमें से एक भी वादा पूरा नहीं हो पाया है। अच्छी बात है कि इस बार न तो पुलिस ने उन्हें दिल्ली में घुसने और महापंचायत करने से रोका और न कृषिमंत्री ने उनसे मिलने से कन्नी काटी। मगर सरकार के रुख से किसान संतुष्ट नजर नहीं आए।
पांचों मांगों में से एक भी मांग सरकार के लिए सुविधाजनक नहीं
उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर सरकार ने उनकी मांगें नहीं मानी, तो वे एक बार फिर बड़ा आंदोलन करने को मजबूर होंगे। उनकी पांच प्रमुख मांगों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून बनाना, बिजली दरों पर नीति बनाना, आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों के परिजनों को मुआवजा देना, किसानों के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लेना और अजय मिश्र टेनी को बर्खास्त करना हैं। इनमें से कोई भी मांग सरकार के लिए सुविधाजनक नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने की मांग तो तीन विवादित कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग के साथ ही जुड़ी हुई थी। अगर सरकार इसे लेकर गंभीर होती, तो तीन कानूनों को रद्द करने के साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर गारंटी वाला कानून का प्रारूप भी अब तक बना चुकी होती।
गृह राज्यमंत्री को बर्खास्त करने को लेकर सरकार कतई तैयार नहीं होगी
हालांकि आंदोलन समाप्त करने की अपील के साथ सरकार ने वादा किया था कि वह किसानों पर दर्ज मुकदमे वापस ले लेगी, मगर साल भर से अधिक समय बीत जाने के बाद भी वह इस दिशा में आगे नहीं बढ़ पाई है। तब कुछ राज्य सरकारों ने अपने यहां दर्ज मुकदमों को वापस लेने का एलान भी कर दिया था। जहां तक मुआवजे की बात है, सरकार शुरू से कहती आ रही है कि मारे गए किसानों का वास्तविक आंकड़ा उसके पास नहीं है, इसलिए मुआवजे के बारे में कोई फैसला नहीं किया जा सकता। गृह राज्यमंत्री को बर्खास्त करने को लेकर वह कतई तैयार नहीं होगी।
तमाम अदालती कड़ाइयों के बावजूद वह उन्हें बचाए हुई है, तो किसानों की यह मांग वह इतनी सहजता से मान लेगी, कहना मुश्किल है। दरअसल, साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी सरकार किसानों की मांगों पर चुप्पी साधे हुई है, इसलिए स्वाभाविक ही उनमें रोष है। वे ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। हालांकि संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन से वापस लौटते वक्त भी कहा था कि उसके लोग कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर जा रहे हैं, समय-समय पर सरकार के वादों की समीक्षा करते रहेंगे और अगर सरकार का रुख सकारात्मक नजर नहीं आएगा, तो वे वापस आंदोलन पर उतरेंगे।
सरकार ने शायद इसे गंभीरता से नहीं लिया। उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए समिति बनाने का प्रस्ताव रखा था, मगर किसानों ने उसे ठुकरा दिया। उनका कहना है कि इससे संबंधित सुझाव और फार्मूला पहले ही कई विशेषज्ञ दे चुके हैं, इस पर नए सिरे से किसी प्रकार के विचार-विमर्श की जरूरत नहीं है। फिर जिस तरह सरकार समिति में अपने लोगों को शामिल कर अपने मुताबिक सुझाव दिलाने का प्रयास करती रही है, उससे भी किसानों को भरोसा नहीं हो पा रहा। आम चुनाव की घोषणा में बमुश्किल साल भर बचा है। अगर फिर से सरकार और किसानों के बीच तनातनी बढ़ी, तो उससे सरकार की ही मुश्किलें बढ़ सकती हैं। किसान दुबारा आंदोलन पर न उतरें, इसके लिए सरकार को व्यावहारिक रुख अपनाना होगा।