सुप्रीम कोर्ट में दो महिला न्यायाधीशों की पीठ के गठन का फैसला इसी दिशा में बढ़ता कदम है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने वैवाहिक विवाद और जमानत के मामलों से जुड़ी स्थानांतरण याचिकाओं पर सुनवाई के लिए पूरी तरह से महिला जजों की एक पीठ गठित कर दी। सुप्रीम कोर्ट में इस पीठ के गठन को भारतीय न्यायपालिका के ज्यादा लोकतांत्रिक होने के क्रम में एक बेहद अहम कदम के तौर पर देखा जा रहा है। हालांकि इससे पहले भी दो बार ऐसी कोशिशें सामने आ चुकी हैं। पहली बार, सन 2013 में पूरी तरह से महिला पीठ का गठन किया गया था, जिसमें न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा और न्यायमूर्ति रंजना प्रसाद देसाई थीं। इसके बाद सन 2018 में न्यायमूर्ति भानुमति और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ गठित हुई थी।
जाहिर है, न्याय की पहुंच का विस्तार करने के लिहाज से ये अहम कदम हैं, जिसमें खासतौर पर महिलाओं के नजरिए से प्रक्रिया को देखने की कोशिश की गई। दरअसल, इस तरह के कदम उठाने की जरूरत तब होती है, जब कुछ खास प्रकृति के मामलों की सुनवाई के दौरान किसी मसले को महिलाओं के नजरिए से देखने की आवश्यकता महसूस की जाती है।
मसलन, भारतीय समाज का ढांचा पितृसत्तात्मक मूल्यों पर आधारित है। इसमें वैवाहिक विवादों के मूल्यांकन में एक सपाट धारणा के तहत दोनों पक्षों को देखना कई बार महिलाओं की स्थिति को कमजोर बना दे सकता है। इसलिए ऐसे विवाद में किसी महिला का पक्ष उसकी दृष्टि से समझने के लिए स्त्री-संवेदना की जरूरत पड़ सकती है। कई स्थितियों में न्याय एक जटिल प्रक्रिया से होकर गुजरता है और इसमें वास्तविक पीड़ित की पहचान के लिए कई स्तरों पर संबंधित विवाद या मुद्दे का विश्लेषण किया जाता है। ऐसे अनेक मामले सामने आते रहे हैं, जिनमें अदालतों का फैसला इस पर निर्भर होता है कि उसके सामने सुनवाई के दौरान किसका पक्ष मजबूत तरीके से रखा गया।
दरअसल, भारतीय समाज में विवादों की परतें कई बार इतनी जटिल होती हैं, जिसमें यह संभव है कि ऐतिहासिक रूप से वंचना के शिकार तबके के रूप में अपना पक्ष रखते हुए कोई महिला सामाजिक आग्रहों के दबाव में कमजोर पड़ जाए। समाज मनोविज्ञान के पहलू से भी देखें तो किसी महिला की अभिव्यक्ति पर उसकी पृष्ठभूमि और आम मानस का प्रभाव हो सकता है। ऐसे समय में ही किसी ऐसे न्यायाधीश की जरूरत होती है, जो सुनवाई करते हुए खुद को महिलाओं की संवेदना से जोड़ सके और पीड़ित महिला दबाव से मुक्त होकर और कुछ जड़ ग्रंथियों से निकल कर अपना पक्ष रखने में सहजता का अनुभव करे।
स्वाभाविक ही महिलाओं से संबंधित मामलों में इंसाफ के लिए महिला न्यायाधीशों की जरूरत महसूस की जाती है। हालांकि न्याय की कुर्सी पर बैठे हर व्यक्ति के लिए कानून से लेकर संवेदना तक की कसौटी पर ऐसा होने की अपेक्षा की जाती है। इसके अलावा, न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी का सवाल लंबे समय से उठता रहा है। अब अगर सुप्रीम कोर्ट में महिला जजों की पीठ का गठन हुआ है तो इसे महिलाओं की सामाजिक अवस्थिति की संरचना को समझते हुए की गई पहल कहा जा सकता है। इसका विस्तार हाई कोर्ट और अन्य निचली अदालतों में भी हो, तो समावेशी न्याय का चेहरा और मजबूत होगा।