संपादकीय: नतीजों के संदेश
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के मुताबिक एनडीए को एक सौ पच्चीस सीटें मिलीं और महागठबंधन को एक सौ दस। सबसे ज्यादा सीटें हासिल कर राष्ट्रीय जनता दल जहां सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आया, वहीं भाजपा दूसरे स्थान पर रही। जदयू को पिछले चुनावों के मुकाबले बड़ा झटका लगा, वहीं कांग्रेस को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा।

बिहार में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं और उसके मुताबिक एक बार फिर भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सरकार बनाने लायक बहुमत मिल गया है। इसके बरक्स राजदनीत महागठबंधन ने सत्ताधारी एनडीए को कड़ी टक्कर दी, लेकिन बहुमत के आंकड़े से पीछे रह गया।
नतीजों के मुताबिक एनडीए को एक सौ पच्चीस सीटें मिलीं और महागठबंधन को एक सौ दस। सबसे ज्यादा सीटें हासिल कर राष्ट्रीय जनता दल जहां सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आया, वहीं भाजपा दूसरे स्थान पर रही। जदयू को पिछले चुनावों के मुकाबले बड़ा झटका लगा, वहीं कांग्रेस को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा।
दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी समूहों के बीच जिस तरह का सामना हुआ, वह राजनीतिक रूप से एक तरह के रोमांच से भरा रहा। चुनावी रैलियों के लिहाज से देखें तो महागठबंधन की रैलियों में जिस तरह का व्यापक जनसमर्थन दिखा था, उससे ये संकेत उभरे कि राज्य में इस बार सत्ता विरोधी लहर है और इसका फायदा राजद को मिलेगा।
दूसरी ओर, चुनावी रैलियों में अपेक्षया कमजोर प्रदर्शन के बावजूद एनडीए को सत्ता के बचे रहने का भरोसा बना रहा। काफी जद्दोजहद से भरे टकराव के बीच आखिरी नतीजों ने एनडीए को एक बार फिर मौका दिया है।
जाहिर है, अब सरकार बनाने के लिए किसी नए समीकरण जरूरत शायद नहीं पड़े और भाजपा-जदयू का सहयोग इसके काफी हो। एनडीए ने नीतीश कुमार को ही फिर मुख्यमंत्री बनाने की बात कही थी, लेकिन जीती गई सीटों के समीकरण के मुताबिक अब यह देखने की बात होगी। राजद को फिर से मुख्य विपक्षी दल का दर्जा मिल जाएगा।
मगर सरकार गठन के बाद ही ये तस्वीरें साफ हो सकेंगी। बहरहाल, बिहार में इस बार दोनों तरफ से जिस तरह की रणनीतिक व्यूह रचना हुई थी, उसने मुकाबले को काफी रोमांचक बना दिया था। एक ओर एनडीए के घटक लोजपा के मुखिया चिराग पासवान ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी तो दूसरी ओर असदुद्दीन ओवैसी, पप्पू यादव, उपेंद्र प्रसाद कुशवाहा आदि नेता दो अलग मोर्चे में थे।
इसका असर परिणामों पर दिखा। जहां लोजपा की उपस्थिति का बड़ा खमियाजा जदयू को उठाना पड़ा, वहीं बाकी छोटे समूहों को जिन मतदाताओं का समर्थन मिला, उसका असर महागठबंधन की सीटों पर पड़ा। यों मतगणना के दौरान कई जगहों से गड़बड़ियों की भी शिकायतें आर्इं, लेकिन आखिरकार नतीजों ने राज्य की भावी सरकार का राजनीतिक पक्ष स्पष्ट कर दिया।
कुछ उतार-चढ़ावों को छोड़ दें तो लोकतंत्र की यही खासियत है। अब यहां से आगे बिहार को एक बार फिर नई उम्मीदों के साथ आगे बढ़ना होगा। इस बार शायद सबसे अहम बात यह रही कि कुछ नेताओं के भावनात्मक मुद्दों को हवा देने की कोशिशों को छोड़ दें, तो पूरे चुनाव में वोट के मुद्दे नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती और विकास के इर्द-गिर्द सरोकार वाले मुद्दों पर केंद्रित रहा।
इस दौरान अलग-अलग पक्षों की ओर से जिस तरह के वादे किए गए, उसने निश्चित रूप से राज्य की जनता के बीच अपेक्षाएं पैदा कीं। लोग महामारी और पूर्णबंदी की मार से किस कदर परेशान हो चुके हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन यह देखने की बात होगी कि सरकार बनाने के बाद एनडीए रोजगार के अपने सबसे प्रमुख वादे को लेकर किस कार्ययोजना पर अमल करती है।
पिछले कई सालों से राज्य में विकास का नारा सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहा है, लेकिन सच यह है कि आज भी इस कसौटी पर सरकार को कठघरे में खड़ा होना पड़ता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सहित अपराधों पर नियंत्रण के मोर्चे पर नई सरकार के सामने भी चुनौतियां बनी रहेंगी।
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