हालांकि इन राज्यों में छोटी विधानसभाएं हैं और वहां चुनाव में आमतौर पर लोग पार्टियों को नहीं, उम्मीदवारों के चेहरे पर मतदान करते रहे हैं। मगर इस बार पार्टियों के आधार पर वहां जीत-हार का आकलन किया जा रहा है और वहां के तीन राज्यों- त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय- के चुनाव नतीजों के आधार पर इस साल होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों और फिर अगले साल होने वाले आम चुनाव की तस्वीर खींचने का प्रयास किया जा रहा है।
त्रिपुरा और नगालैंड में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को स्पष्ट बहुमत मिला है, जबकि मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति है। हालांकि त्रिपुरा में भाजपा ने प्रस्ताव रखा है कि अगर टिपरा मोथा उसका समर्थन करती है, तो सरकार बनने के बाद वह उसकी सारी मांगें मान ली जाएंगी। मगर यह अभी चुनाव नतीजों के बाद की स्थितियों पर निर्भर करेगा। पूर्वोत्तर राज्यों की राजनीति दूसरे राज्यों की अपेक्षा थोड़ी भिन्न होती है। वहां कई स्थानीय मुद्दे जटिल हैं, जिनके आधार पर दलों का आपसी गठजोड़ तय होता है।
हालांकि हर चुनाव सीटों का खेल होता है। जिसके पास सरकार बनाने लायक उम्मीदवार जीत जाते हैं, सरकार उसी की बनती है। मगर पार्टियों की स्थिति का आकलन तो उन्हें मिले मतों के आधार पर होता ही है। इस दृष्टि से बेशक भाजपा गठबंधन को त्रिपुरा और नगालैंड में विजय मिली है, मगर आंकड़ों के मुताबिक उसे पहले की तुलना में कम सीटें मिली हैं और मत फीसद भी गिरा है। पर इस दृष्टि से कांग्रेस की स्थिति भी बेहतर नहीं कही जा सकती, बेशक उसके मत फीसद में कुछ बढ़ोतरी दर्ज हुई है।
कयास लगाए जा रहे थे कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का वहां के चुनावों पर असर पड़ेगा और कांग्रेस को उसका लाभ मिलेगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। वहां वाम दलों की पकड़ मजबूत हुआ करती थी और करीब पच्चीस साल तक सत्ता में रहे, मगर वे भी अपनी जमीन वापस लेने में कामयाब नहीं हो पाए, तो इसकी कुछ वजहें स्पष्ट हैं।
दरअसल, पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों की बहुत पुरानी शिकायत रही है कि उनकी तरफ केंद्र की सरकारें ध्यान नहीं देतीं। उनके राज्यों में विकास परियोजनाओं की रूपरेखा नहीं बनाई जाती। उनके सीमा और पहचान संबंधी विवादों के निपटारे की गंभीरता से कोशिश नहीं की जाती। इस लिहाज से भाजपा ने पूर्वोत्तर पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया। बुनियादी ढांचे को मजबूत करने पर जोर दिया गया।
राज्यों के बीच सीमा संबंधी विवादों को सुलझाने का प्रयास किया गया। इसके नतीजे प्रकट रूप में दिखने भी लगे हैं। इसका असर स्वाभाविक रूप से वहां के लोगों के मन पर पड़ा है। जबकि इन राज्यों के लोगों की वैचारिक पृष्ठभूमि भाजपा के सिद्धांतों से सीधे-सीधे मेल नहीं खाती, मगर विकास का मुद्दा उन्हें उससे जोड़ता है।
इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ है कि आम लोग वैचारिक और सैद्धांतिक मुद्दों के बजाय विकास के मुद्दों को अधिक तरजीह देते हैं। अगर केवल सिद्धांत प्रभावित करते, तो त्रिपुरा में भाजपा की वापसी संभव न हो पाती। मगर उसके सामने यह चुनौती तो है ही कि पूर्वोत्तर में अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए उसे स्थानीय समस्याओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करना होगा।