ऐसी अपेक्षा की जाती है कि संसद में जरूरी मुद्दों पर स्वस्थ चर्चा होगी और समस्याओं के समाधान की दिशा में व्यावहारिक नतीजे निकाले जा सकेंगे। मगर पिछले कुछ सालों से संसद के दोनों सदन जैसे राजनीतिक दलों के लिए जोर-आजमाइश की जगहों में बदलते गए हैं। हर संसद सत्र में पक्ष और विपक्ष के बीच किसी न किसी मुद्दे को लेकर शुरू से लेकर आखिर तक हंगामा चलता रहता है। उसी में कुछ सांसदों को निलंबित करने की कार्रवाई भी की जाती है और फिर उसे लेकर अलग से हंगामा शुरू हो जाता है।
सदन में हंगामें की योजना पहले से बनी रहती है, सरकार भी तैयार रहती है
अक्सर यह भी देखा जाने लगा है कि संसद सत्र अवधि से पहले ही स्थगित कर दिया जाता है। बजट सत्र में भी वही रुझान बना हुआ है। इसका पहला चरण हंगामे की भेंट चढ़ गया। दूसरे चरण में भी पहले ही दिन से हंगामा शुरू हो गया। विपक्ष ने पहले से तय कर रखा था कि वह अडाणी प्रकरण पर सत्तापक्ष को घेरेगा। यह बात सरकार को पता थी, इसलिए उसने अपने बचाव में तैयारियां कर रखी थी। विपक्ष अड़ा हुआ है कि अडाणी की कंपनियों को दिए गए कर्ज के मामले में सरकार अपना पक्ष रखे, मगर सत्तापक्ष उस पर कोई बात करने को तैयार नहीं है।
राहुल गांधी का विदेश में बयान विवाद का विषय बना
अब सत्तापक्ष को राहुल गांधी के ब्रिटेन में दिए भाषण को लेकर कांग्रेस को घेरने का मौका मिल गया है। उसका कहना है कि राहुल गांधी ने विदेशी धरती पर भारतीय लोकतंत्र का अपमान किया है। इसके लिए उन्हें सदन में आकर माफी मांगनी चाहिए। फिर वे जिस सदन के सदस्य हैं, उसी सदन का अपमान करने का मामला दंडात्मक कार्रवाई का बनता है। उनकी सदस्यता समाप्त की जानी चाहिए। स्पष्ट है कि सरकार अडाणी प्रकरण को दबाने के लिए राहुल गांधी के भाषण को तूल देती रहेगी और संसद में किसी विषय पर कोई सार्थक बहस संभव नहीं हो पाएगी।
यह पहला मौका नहीं है, जब सत्तापक्ष और विपक्ष रणनीतिक रूप से संसद में हंगामा कर रहे हैं। पिछले कई सालों से यह प्रवृत्ति बनी हुई है। तीन कृषि कानूनों को लेकर भी इसी तरह हंगामा हुआ और फिर स्थिति यहां तक पहुंच गई थी कि कुछ विपक्षी नेताओं को पूरे सत्र के लिए संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेने से रोक दिया गया। बाकी विपक्षी सदस्यों को सदन से बाहर निकालने के लिए सुरक्षाबलों का प्रयोग करना पड़ा था। कई बार ऐसा देखा जा चुका है कि विपक्ष संसद से बाहर निकल कर मीडिया के सामने अपनी बातें रखता रहा है।
दरअसल, संसद की मर्यादाएं दोनों पक्ष तोड़ते देखे जा रहे हैं। सरकार जानबूझ कर उन असहज करने वाले सवालों से बचने का प्रयास करती है, जिनसे उसकी कमजोरी जाहिर हो सकती है। इसलिए वह हर बार कोई न किसी ऐसे मामले को तूल देती देखी जाती है, जिसके जरिए वह विपक्ष की गलतियां रेखांकित कर सके। इसमें विपक्षी नेताओं के बोलते वक्त तरह-तरह से व्यवधान उपस्थित करते भी देखा जाता है।
हालांकि विपक्ष भी स्वस्थ इरादे से किसी मुद्दे पर बहस करने की इच्छा रखता हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह अक्सर सरकार को घेर कर अपनी राजनीति चमकाने का प्रयास करता है। इस तरह संसद में चर्चाओं का मूल मकसद ही कहीं खो गया है। इसका नतीजा यह निकलता है कि जिन कानूनों पर चर्चा के बाद सहमति बननी चाहिए, वे भी एकतरफा सहमति से पारित कर दिए जाते हैं। इस प्रवृत्ति से लोकतंत्र का नुकसान ही हो रहा है।