बलात्कार के मामलों में अक्सर उचित जांच और पर्याप्त सबूत न मिल पाने के कारण आरोपी मुक्त हो जाते हैं। विचित्र है कि उनमें से बहुत सारे मामलों में असली दोषी की पहचान नहीं हो पाती। हाथरस मामले में आए फैसले को लेकर भी पीड़िता के परिजनों में इसी के चलते असंतोष दिखाई दे रहा है। इस मामले में एक आरोपी को उम्रकैद की सजा और पचास हजार रुपए का जुर्माना लगा गया है। बाकी तीन आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया गया है। सजा पाए व्यक्ति को भी बलात्कार नहीं, बल्कि गैर-इरादतन हत्या और अनुसूचित जाति-जनजाति कानून के तहत दोषी पाया गया है।
पीड़िता की मौत के बाद पुलिस ने आधी रात को किया अंतिम संस्कार
गौरतलब है कि करीब ढाई साल पहले हाथरस में अनुसूचित जाति की एक लड़की के साथ कथित रूप से सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसे जान से मारने का प्रयास किया गया था। दिल्ली के एक अस्पताल में उसका इलाज चला, मगर उसे बचाया नहीं जा सका। उस मामले को लेकर लोगों में खासा आक्रोश दिखा था। लड़की की मौत के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने पीड़िता के परिवार की इजाजत के बगैर आधी रात को चुपके से उसका दाह संस्कार कर दिया था। जाहिर है, उसे लेकर देश भर में रोष पैदा हुआ था। सवाल उठा था कि आखिर पुलिस को यह अधिकार किसने दिया कि वह इस तरह दाह संस्कार करे।
अब उस मामले में एक व्यक्ति को गैर-इरादतन हत्या का दोषी पाया गया है। यह तथ्य छिपा ही रह गया कि लड़की से बलात्कार का जो आरोप लगा था, उसमें कितनी सच्चाई थी। फिर इस घटना के बाद जिस तरह उत्तर प्रदेश पुलिस लगातार मामले पर पर्दा डालने का प्रयास करती रही, उसका क्या! आधी रात को पीड़िता के शव को जला देना भला कहां का न्याय था। इसलिए न्यायालय के इस फैसले को लेकर स्वाभाविक रूप से सवाल उठ रहे हैं। हालांकि पीड़ित पक्ष इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देगा, पर न्याय कब तक मिल पाएगा, कहना मुश्किल है।
पुलिस के रवैये पर लगता रहा है पक्षपात का आरोप
किसी भी आपराधिक मामले में न्याय इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी जांच में कितनी निष्पक्षता और पारदर्शिता बरती जाती है। यह काम चूंकि पुलिस को करना होता है और उत्तर प्रदेश पुलिस का रवैया शुरू से पक्षपातपूर्ण देखा गया, इसलिए अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि उसने इसमें कितनी संजीदगी से जांच की होगी। जिस पुलिस ने अस्पताल से शव को उठा कर रात के अंधेरे में दाह संस्कार कर दिया, उसकी जांच पर कितना भरोसा किया जा सकता है।
बलात्कार और हत्या के मामले में अक्सर पुलिस का झुकाव रसूखदार लोगों के पक्ष में देखा जाता है। अगर आरोपी रसूखदार और समाज के तथाकथित ऊंचे तबके से है, तो पुलिस का झुकाव उसी की तरफ देखा जाता है। अगर बलत्कृता तथाकथित निम्न जाति से ताल्लुक रखती है, तो पुलिस प्राय: उसकी शिकायत तक दर्ज करने से भी बचती है। किसी न किसी बहाने उसे टालती रहती है। हाथरस कांड में भी उसका यही रवैया दिखाई दिया।
निचली अदालत ने जो फैसला सुनाया है, वह पुलिस के जुटाए तथ्यों के आधार पर ही दिया है। इसलिए पीड़ित पक्ष ऊपरी अदालत में इसे चुनौती देगा। उसे उम्मीद है कि वहां इस मामले की नए सिरे से जांच की कोशिश की जाएगी और सही तथ्यों को सामने लाने का प्रयास होगा। मगर फिर भी सहयोग तो पुलिस से ही लेना पड़ेगा और वह अपनी गलतियों को सुधारने या अपने पेश किए गए गलत तथ्यों को सही करने की कितनी ईमानदारी दिखाएगी, कहना मुश्किल है।