गिरफ्तारी बनाम रिहाई
जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि की रिहाई ने एक बार फिर पुलिस की कार्रवाई पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि की रिहाई ने एक बार फिर पुलिस की कार्रवाई पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। अदालत ने उसकी रिहाई का फैसला सुनाते हुए जो टिप्पणी की, उस पर निस्संदेह व्यवस्था को गंभीरता से विचार करना चाहिए। किसान अंदोलन में लालकिले पर हुई हिंसा को भड़काने का आरोप लगाते हुए दिशा को पुलिस ने बंगलुरु से गिरफ्तार किया था।
दरअसल, किसान आंदोलन के संबंध में अमेरिकी जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने एक ट्वीट किया था, जो भारत सरकार को काफी नागवार गुजरा था। विदेश मंत्रालय ने उस पर टिप्पणी की थी कि किसान आंदोलन भारत का अंदरूनी मामला है और उस पर विदेशी लोगों को टिप्पणी करने का कोई हक नहीं। फिर दिल्ली पुलिस ने ग्रेटा से जुड़े भारतीय लोगों को तलाशना शुरू किया था।
उसमें दिशा रवि और दो और लोगों की पहचान की गई। दिशा पर आरोप है कि उसने ग्रेटा के टूलकिट को संपादित कर भारत में अपने समूह के लोगों तक फैलाया था। सोशल मीडिया पर टूलकिट दरअसल एक प्रकार की पोस्टर जैसी ही सामग्री होती है। उसी में संपादन का दोष दिशा पर मढ़ कर उसे गिरफ्तार किया गया था। पुलिस हिरासत में उससे पांच दिन तक पूछताछ होती रही।
दिशा की गिरफ्तारी पर देश भर में तीखी प्रतिक्रियाएं हुई थीं। तमाम सामाजिक संगठनों और विपक्षी दलों ने इसे वैमनस्यतापूर्ण कार्रवाई करार दिया था। मगर दिल्ली पुलिस का कहना था कि दिशा के संबंध खालिस्तान समर्थक संगठन से है, जो कि देशद्रोह का मामला बनता है। मगर जब इस पूरे प्रकरण पर अदालत ने सुनवाई की, तो उसे कहीं भी पुलिस के तर्क में कोई दम नजर नहीं आया। अदालत ने पुलिस को अपने पक्ष में सबूत पेश करने का भरपूर समय दिया, मगर वह नाकाम रही।
इस पर अदालत ने बहुत गंभीर टिप्पणी की है कि नागरिक सरकार की अंतरात्मा को जगाने वाले होते हैं। उन्हें केवल इसलिए जेल नहीं भेजा जा सकता कि वे सरकार की नीतियों के खिलाफ हैं। वाट्स एप्प समूह बनाना या उस पर सरकार की नीतियों के विरोध में किसी सामग्री का प्रसार करना गलत नहीं है। पुलिस किसी भी रूप में साबित नहीं कर पाई है कि दिशा की गतिविधियां अलगाववादी हैं।
दिशा की पूर्व में कोई आपराधिक पृष्ठभूमि भी नहीं है। अदालत की इस टिप्पणी से व्यवस्था ने पता नहीं कितना सबक लिया है। बिना ठोस सबूत के और संवैधानिक मूल्यों की परवाह किए बगैर जब पुलिस केवल सबक सिखाने की मंशा से ऐसी गिरफ्तारियां करती है, तो उसे इसी तरह किरकिरी झेलनी पड़ती है। मगर अदालत की ताजा टिप्पणी से उसकी अंतरात्मा कितनी जागेगी, कहना मुश्किल है।
यह पहली घटना नहीं है, जब सरकार की किसी नीति का विरोध करने पर पुलिस ने सबक सिखाने, परेशान या फिर बदनाम करने की मंशा से किसी को गिरफ्तार किया था। छिपी बात नहीं है कि पुलिस सरकारों के इशारे पर काम करती है, इसलिए जब भी ऐसी कोई घटना होती है, तो निशाने पर पुलिस उतनी नहीं होती, जितनी सरकारें होती हैं।
किसान आंदोलन के दौरान कई ऐसे नौजवान और बुजुर्ग बिना किसी ठोस आधार के गिरफ्तार किए गए। उनमें से कुछ को अदालत ने रिहा करते हुए इसी तरह पुलिस पर कड़ी टिप्पणी की थी। सोशल मीडिया पर की जाने वाली टिप्पणियों पर रोक लगाने के मकसद से जब केंद्र सरकार ने अदालत से हरी झंडी चाही, तब भी उसे अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर ऐसी ही नसीहत सुनने को मिली थी। उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालत की ताजा नसीहत का व्यवस्था पर कुछ असर होगा।