इस सवाल का कोई उचित जवाब यही हो सकता था कि इस दिशा में पुरुष और महिला खिलाड़ियों के बीच हर स्तर पर बराबरी लाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं। अब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने फिलहाल शुल्क के मामले में गैरबराबरी को खत्म करने के लिए एक बड़े कदम की घोषणा की है। बोर्ड की ओर से गुरुवार को कहा गया कि हम अपनी अनुबंधित बीसीसीआइ महिला क्रिकेटरों के लिए वेतन समानता की नीति लागू कर रहे हैं; पुरुष और महिला क्रिकेटरों, दोनों के लिए मैचों की फीस समान होगी, क्योंकि हम भारतीय क्रिकेट में लैंगिक समानता के नए युग में प्रवेश कर रहे हैं।
यह भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक बड़ा और सकारात्मक कदम है, हालांकि ऐसा बहुत पहले हो जाना चाहिए था। यह अपने आप में विचित्र व्यवस्था थी कि हर स्तर पर एक ही तरह से खेलने वाले खिलाड़ियों के बीच शुल्क के निर्धारण में भेदभाव की व्यवस्था का आधार महिला और पुरुष होना हो। एक पुरुष खिलाड़ी को एक टेस्ट मैच के लिए पंद्रह लाख रुपए, एकदिवसीय के लिए छह लाख और टी-20 अंतरराष्ट्रीय मैच के लिए तीन लाख रुपए फीस के तौर पर मिलते हैं।
मगर भारतीय महिला क्रिकेटरों के लिए यही राशि टेस्ट मैच में चार लाख और एकदिवसीय या टी-20 में महज एक लाख रुपए था। बेशक अब नया फैसला लागू होने के बाद अनुबंधित महिला टीम के खिलाड़ियों को भी पुरुष खिलाड़ियों के बराबर फीस मिलेगी, मगर यह व्यवस्था फिलहाल सिर्फ प्रति मैच के मामले में लागू होगा। सालाना अनुबंध की राशि अब भी पहले से निर्धारित रकम के मुताबिक ही मिलेगी। जाहिर है, फीस में यह समानता अभी पुरुष और महिला क्रिकेट खिलाड़ियों के बीच बराबरी की व्यवस्था को लागू करने की ओर बढ़े शुरुआती कदम हैं।
यह समझना मुश्किल है कि महिला क्रिकेटरों के प्रति भेदभाव के पीछे क्या वजहें रहीं! भेदभाव की यह व्यवस्था आमतौर पर सभी खेलों और दुनिया भर में रही है। एक दलील यह दी जाती है कि महिला क्रिकेट के दर्शकों की संख्या चूंकि कम होती है, इसलिए इसका असर उनके मेहनताने पर भी पड़ता है। लेकिन जब एक खेल का समूचा ढांचा पुरुष और महिला खिलाड़ियों के लिए एक ही है, तो उसमें महिला क्रिकेट के आयोजन को लोकप्रिय बनाने की जिम्मेदारी किसकी है?
पिछले कुछ सालों के दौरान महिला क्रिकेटरों ने अपने प्रदर्शन के बूते मैदान में अपनी क्षमता साबित की है और भारी पैमाने पर लोगों की दिलचस्पी इस खेल में बढ़ी है। दरअसल, किसी खेल की लोकप्रियता उसके आयोजन और आयोजकों के रुख पर निर्भर है कि उसे कितनी गंभीरता से लिया जाता है। अब अगर मैचों में फीस बराबर करने की पहल की गई है तो उम्मीद है कि हर स्तर पर पुरुषों के मुकाबले बराबरी को महिलाओं का हक माना जाएगा और इसे लेकर कोई बहाना या टालमटोल का रवैया अख्तियार नहीं किया जाएगा।