अनेक सुझाव भी सामने आते रहे हैं कि न्यायाधीशों की नियुक्त से लेकर मुकदमों को निपटाने के लिए आधुनिक तकनीकी व्यवस्था जैसे उपायों के जरिए इस समस्या की जटिलता को कम किया जा सकता है। हालांकि आए दिन न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में अलग-अलग कारणों से बहस चलती रहती है।
लेकिन सरकार और न्यायपालिका के बीच अब तक कोई ऐसी सहमति नहीं बन सकी है, जिससे इस गंभीर समस्या का हल निकल सके। अब एक बार फिर कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने मुकदमों के अंबार को लेकर चिंता जाहिर करते हुए इसके समाधान के लिए ठोस कदम उठाने की बात कही है। उन्होंने कहा कि देश की विभिन्न अदालतों में करीब चार करोड़ नब्बे लाख मामले लंबित हैं और ऐसे में सरकार और न्यायपालिका को साथ मिल कर काम करना होगा, ताकि तेज गति से न्याय हो सके। इस संदर्भ में उन्होंने प्रौद्योगिकी की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कानून मंत्री की फिक्र न्यायिक क्षेत्र में एक जटिल हो चुकी समस्या को संबोधित है और इसके समाधान के लिए अब केवल चिंता जाहिर करने से आगे सार्थक पहल करने की जरूरत है। सवाल है कि दशकों से यह समस्या अब तक क्यों कायम है! आखिर हमारी न्याय व्यवस्था किस पद्धति, तंत्र और सीमा के तहत काम कर रही है कि मामलों के बोझ से उपजी मुश्किल और जटिल होती गई है? यह बेवजह नहीं है कि मुकदमों पर सुनवाई साल-दर-साल खिंचती रहती है और इस तरह न्याय की उम्मीद भी अपना महत्त्व खोती जाती है।
इस संदर्भ में एक मशहूर उक्ति है और खुद कानून मंत्री ने भी यह माना है कि लंबित मामलों का मतलब न्याय में देरी है; न्याय में देरी का अर्थ न्याय से इनकार है। सरकार से लेकर न्यायपालिका में सभी स्तरों पर इस हकीकत से परिचित होने के बावजूद ऐसे किसी हल तक पहुंचना जरूरी क्यों नहीं लगता जो न्यायपालिका और न्याय पर भरोसे को मजबूत करे!
न्यायालयों की कमी को दूर करने के साथ-साथ न्यायाधीशों के खाली पड़े पदों पर नियुक्ति और इसकी प्रक्रिया को लेकर एक सर्वमान्य हल तक पहुंचना एक प्राथमिक जरूरत है। लेकिन इस संबंध में अन्य विकल्पों पर विचार करना भी वक्त का तकाजा है। मसलन, क्या आधुनिक तकनीकी या प्रौद्योगिकी के सहारे कोई ऐसा तंत्र बनाया जा सकता है या इसका इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे मुकदमों के बोझ को कम करने में मदद मिले? विधि आयोग की एक रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश की गई थी प्रति दस लाख की आबादी पर कम से कम पचास न्यायाधीशों की जरूरत है।
हकीकत यह है कि इतनी आबादी पर सिर्फ सत्रह न्यायाधीश हैं। यह बेवजह नहीं है कि इतनी बड़ी आबादी के बीच आए दिन अदालतों में आने वाले मुकदमे में वक्त पर इंसाफ मिलना तो दूर, सुनवाई के लिए भी लोगों को लंबा इंतजार करना पड़ता है। मुकदमों में कमी लाने के लिए लोक अदालतों का सहारा लेना एक विकल्प जरूर है, लेकिन सवाल है कि न्याय की गुणवत्ता के मद्देनजर कोई नियमित व्यवस्था नहीं होती है तो इस माध्यम से कितनी मदद मिल सकती है!
फिलहाल मुकदमों की प्रकृति के मुताबिक उन्हें वर्गों में बांट कर एक समयबद्ध कार्यक्रम के तहत उन्हें निपटाने की कोशिश की जा सकती है। लेकिन दीर्घकालिक हल के लिए न केवल लंबित मामलों में कमी लाने, बल्कि अदालतों में रोज आने वाले मुकदमों को निपटाने के लिए एक सुचिंतित और व्यापक तंत्र को मजबूत करने की जरूरत है।