सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में, इससे संबंधित कानून बनने तक, एक तदर्थ व्यवस्था दी है। इस व्यवस्था का स्वाभाविक ही स्वागत किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश और विपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा किया जाए।
अभी तक इनकी नियुक्ति सरकार की पसंद से ही की जाती रही है। दरअसल, संविधान में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर कोई प्रक्रिया नहीं सुझाई गई है। इस तरह सरकार ही अपनी पसंद के नाम इस पद के लिए सुझाती रही है, जिस पर राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाती रही है। मगर पिछले कुछ सालों से चुनाव आयोग के कामकाज को लेकर अंगुलियां उठती रही हैं।
मांग की जा रही थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए भी कालेजियम जैसी कोई व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। करीब पांच साल पहले कई याचिकाएं दायर की गई थीं। उन पर विचार करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यों की संविधान पीठ ने एकमत से स्वीकार किया कि इस मामले में कानून बनाया जाना चाहिए। जब तक कानून नहीं बन जाता, तब तक संविधान पीठ द्वारा तय प्रक्रिया का पालन किया जाए।
लोकतंत्र में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसे सुनिश्चित कराना निर्वाचन आयोग का दायित्व है। मगर अनेक मौकों पर आरोप लगते रहे हैं कि निर्वाचन आयोग पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता और कार्रवाई करता है। इसलिए मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर ऐसे व्यक्ति को बिठाने की मांग की जाती रही है, जो खुद निष्पक्ष हो।
चुनाव आयुक्त के कामकाज पर अंगुलियां इसलिए भी उठती रही हैं कि उनकी नियुक्ति चूंकि सरकार की इच्छा से होती है, इसलिए माना जाता है कि उनका झुकाव सरकार के प्रति होता है। हालांकि कई ऐसे मौके भी देखे गए हैं, जब कुछ मुख्य चुनाव आयुक्तों ने सरकार के विरुद्ध कड़ा रुख अख्तियार किया। मगर इस बार विवाद इसलिए गहरा हो गया कि वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में जिस तरह सरकार ने हड़बड़ी दिखाई और नियुक्ति संबंधी जरूरी प्रक्रिया का पालन भी नहीं किया गया, वह हैरान करने वाला था।
उन्होंने रातोंरात अपने पद से इस्तीफा दिया और चौबीस घंटे के भीतर उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त की जिम्मेदारी सौंप दी गई। इस पर स्वाभाविक ही आपत्तियां दर्ज कराई गईं। तब सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा था कि उसे ऐसी क्या हड़बड़ी थी कि बिजली की रफ्तार से यह नियुक्ति करनी पड़ी।
अभी सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था दी है, उसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार के लिए अपनी पसंद थोपना आसान नहीं होगा। इसमें विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता और प्रधान न्यायाधीश की भागीदारी होने से सरकार भी ऐसे नामों का चुनाव करने से बचेगी। फिर, अभी तक जिन नियुक्तियों में विपक्ष के नेता की मौजूदगी अनिवार्य होती है।
पर सरकार इस तर्क के आधार पर विपक्ष को उनमें शरीक नहीं करती रही है कि संवैधानिक नियमों के तहत किसी भी ऐसे दल के पास पर्याप्त संख्या न होने की वजह से विपक्ष का कोई नेता नहीं है, वह तर्क भी इसमें काम नहीं आने वाला। अदालत ने कहा है कि सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को इसमें शामिल करना होगा। इस तरह चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में पारदर्शिता का भरोसा बना है।