छत्तीसगढ़ सरकार का बजट इसका ताजा उदाहरण है। उसने बजट में प्रावधान किया है कि युवाओं को ढाई हजार रुपए मासिक बेरोजगारी भत्ता देगी। इसके अलावा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, होमगार्डों, ग्राम कोटवारों आदि के मानदेय में भी वृद्धि की घोषणा की है।
बजट में युवाओं, किसानों, महिलाओं और सरकारी कर्मचारियों को खुश करने का प्रयास किया गया है। इसी तरह एक दिन पहले मध्यप्रदेश सरकार ने भी अपने बजट में लाड़ली बहना योजना शुरू की, जिसके तहत ऐसी महिलाओं को एक हजार रुपए प्रति माह सरकारी सहायता देने की घोषणा की गई, जो आयकर के दायरे में नहीं आतीं और जिनके परिवार की आमदनी ढाई लाख रुपए वार्षिक से कम है।
राजस्थान सरकार तो पहले ही ऐसी लुभावनी योजनाओं की बरसात कर चुकी है। गौरतलब है कि इन तीनों राज्यों में इस साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं और सभी राजनीतिक दल उसकी तैयारी में जुटने लगे हैं। इन सरकारों की घोषणाओं में स्पष्ट रूप से चुनावी मकसद देखा जा सकता है। हर कल्याणकारी सरकार का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को आर्थिक रूप से सक्षम बनने के अवसर उपलब्ध कराए। अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो निर्बल वर्ग के लोगों को वित्तीय मदद मुहैया कराए। मगर सवाल है कि क्या ऐसे बजटीय प्रावधानों से ये संवैधानिक तकाजे पूरे हो सकते हैं।
खुशहाल देश और समाज वही माना जाता है, जहां लोग निजी उद्यम से अपने गुजर-बसर संबंधी सुविधाएं जुटाते हैं। खैरात पर जीने वाला समाज विपन्न ही माना जाता है। लोग भी यही चाहते हैं कि उन्हें कुछ करने को काम मिले। इसी से उन्हें संतोष मिलता है। मगर हकीकत यह है कि देश में नौकरियों की जगहें और रोजगार के नए अवसर लगातार कम होते गए हैं। यह केवल कोरोना महामारी के प्रभाव में नहीं हुआ है।
सरकारों की तरफ से ऐसे अवसरों को बढ़ाने के व्यावहारिक प्रयास न होने की वजह से भी हुआ है। मगर इस कमजोरी पर पर्दा डालने के लिए सरकारों ने मुफ्त सहायता देने की परंपरा विकसित कर ली है। चाहे वह मुफ्त राशन हो, बेरोजगारी भत्ता हो या फिर महिलाओं को वजीफा हो। इस मामले में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार पीछे नहीं है। अब तो इस मामले में जैसे एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़-सी नजर आने लगी है। पंजाब विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को वजीफा देने की घोषणा की थी।
सवाल है कि सरकारें इस पहलू पर कब विचार करेंगी कि हर हाथ को काम मिले। लोगों के हाथ में काम होगा, तो उन्हें इस तरह सरकारों की मुफ्त की योजनाओं के लिए हाथ परसारने पर मजबूर ही नहीं होना पड़ेगा। जब लोगों के हाथ में काम होता है, तो न सिर्फ उनकी पारिवारिक स्थिति सुधरती है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी बल मिलता है।
इस बात से सरकारें अनजान नहीं हैं, मगर लगता है कि उन्होंने नौकरी और रोजगार सृजन की तरफ से ध्यान भटकाने के लिए इस तरह की योजनाओं को सबसे आसान रास्ता समझ लिया है। इस रास्ते पर वे कितने समय तक चल सकेंगी, इसका ठीक-ठीक आकलन शायद ही किसी ने किया हो। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे सरकारों में रोजगार सृजन की इच्छाशक्ति भी नहीं बची है।