मगर शायद कुछ राजनेता यह विवेक भी खो चुके हैं। उत्तर प्रदेश में ओबीसी महासभा द्वारा रामचरित मानस के पन्ने जलाना इसका ताजा उदाहरण है। विचित्र है कि इसमें समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता भी शामिल थे। अब इस मामले में दस लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली गई है।
इस कृत्य के पीछे की मंशा छिपी नहीं है। काफी समय से मानस की कुछ चौपाइयों को लेकर सवाल खड़े किए जाते और उन्हें समाज के हाशिये के लोगों के प्रति अपमान के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। लोक में उन चौपाइयों की अपने-अपने तरीके से व्याख्याएं भी होती रही हैं, मगर उनके आधार पर पूरे रामचरित मानस का अनादर करने का प्रयास कभी नहीं हुआ।
दरअसल, मानस की एक चौपाई में ‘नारी’ और ‘शूद्र’ को लेकर अपमानजनक भाव ध्वनित होता है। उसी को आधार बना कर इन दोनों समुदायों के लोगों को अपने पक्ष में करने की राजनीतिक सोच पैदा हुई होगी। मगर ऐसी समझ को क्या कहा जाए कि एक या कुछ चौपाइयों के आधार पर लोक में स्थापित रामचरित मानस की प्रतिष्ठा को ही मटियामेट करने का कदम उठा लिया गया।
हालांकि भारतीय समाज में किसी रचना में व्यक्त विचारों से असहमति की बहुत पुरानी परंपरा है। वेदों तक में व्यक्त सिद्धांतों की आलोचना होती रही है, जिससे अनेक दार्शनिक पद्धतियां विकसित हुई हैं। विचारों का संघर्ष कोई बुरी बात नहीं, मगर जब इस तरह किसी कृति को जला कर उसका विरोध किया जाता है, तो उससे ऐसा करने वालों की तंगनजरी ही जाहिर होती है। तुलसीदास का मानस आलोचनाओं से परे नहीं माना जा सकता।
खुद तुलसी को अपने जीते-जी अनेक विद्वानों के वैचारिक प्रहार झेलने पड़े थे। मगर विचारों का जवाब विचारों से दिए जाने की अपेक्षा की जाती है, न कि उससे संबंधित कृति के दहन से। इससे यह भी जाहिर हुआ है कि जिन लोगों ने मानस की प्रतियों का दहन किया, उनके पास विरोध की वैचारिक क्षमता है ही नहीं।
ऐसे लोगों का विरोध समाज में कोई स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ता, उल्टा यही संदेश पुख्ता होता है कि ऐसे लोगों को नेतृत्व देना जोखिम भरा हो सकता है। मगर समाज को बांट कर अपनी राजनीति चमकाने वाले इतनी महीन रेखा को कहां पहचान पाते हैं। समाजवादी पार्टी का जनाधार एक खास जाति-वर्ग तक सिमटा हुआ है, इस तरह वह दलित वर्ग को लुभाने का प्रयास करना चाहती है।
मगर मानस केवल एक साहित्यिक कृति नहीं है। अब वह लोगों की आस्था का ग्रंथ है। मांगलिक कार्यों में लोग श्रद्धा के साथ उसका अखंड पाठ रखते हैं। बहुत सारे लोग उसकी पूजा करते हैं। लोक में जितनी प्रतिष्ठा मानस की है, उतनी शायद ही किसी और ग्रंथ की है। इसलिए समाजवादी पार्टी के नेताओं द्वारा रामचरित मानस की प्रतियों के दहन से स्वाभाविक ही लोक मानस आहत हुआ है।
इसमें समाजवादी पार्टी के बहुत सारे समर्थक भी शामिल हो सकते हैं, जो मानस को पवित्र ग्रंथ की तरह अपने घरों में रखते हैं। उसका निरादर करके समाजवादी पार्टी का जनाधार विस्तृत होना तो दूर, कमजोर अवश्य हो सकता है। जिस वरिष्ठ नेता ने मानस के पन्ने जलाए, वे पिछले विधानसभा चुनाव में ही भाजपा छोड़ कर समाजवादी पार्टी में शामिल हुए थे। इतनी जल्दी वे अपनी बौद्धिक परंपराओं और लोक आस्था के महत्त्व को भूल जाएंगे, हैरानी होती है।