हालांकि कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी संबंधित राज्यों की पुलिस को इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया था, मगर उसका कोई असर नजर नहीं आया। इसलिए अब उसने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा है कि प्रशासन इस मामले में सख्ती से काम करे, नहीं तो वह अवमानना के लिए तैयार रहे।
अदालत ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड पुलिस को इस बाबत नोटिस भी भेजा है कि उन्होंने नफरती भाषण देने वालों के खिलाफ क्या कार्रवाई की। इन्हीं तीनों राज्यों में सबसे अधिक नफरती भाषण दिए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि संविधान में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की परिकल्पना की गई है और नफरत फैलाने वाले बयानों और भाषणों को कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
दरअसल, हाल ही में दिल्ली की एक सभा को संबोधित करते हुए भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने अल्पसंख्यक समुदाय को सबक सिखाने के लिए संपूर्ण बहिष्कार का आह्वान किया था, जिसे लेकर खासा विवाद पैदा हुआ। अदालत में ऐसे बयानों के जरिए मुसलिम समुदाय को निशाना बनाने और आतंकित करने के प्रयासों पर रोक लगाने संबंधी याचिका दायर की गई थी। उसी प्रसंग में अदालत ने ताजा आदेश दिया है।
कुछ महीने पहले हरिद्वार और उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में धर्म संसदों का आयोजन कर अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ घृणा भरे बयान दिए गए थे। हरिद्वार की धर्म संसद में तो यती नरसिंहानंद ने अल्पसंख्यकों के जनसंहार तक का आह्वान किया था। तब भी अदालत ने कड़ी चेतावनी दी थी, पुलिस को कार्रवाई करने को कहा था, मगर वे लोग बाज नहीं आए।
इस तरह के बयानों से सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता है। एक समुदाय विशेष के प्रति समाज में नफरत का माहौल बनता है। मगर हैरानी की बात है कि राजनीतिक दल भी अपने नेताओं को अनुशासित नहीं करते। दिल्ली दंगों से पहले भी सार्वजनिक मंचों से इसी तरह ‘गोली मारो’ के नारे लगवाए गए थे। हालांकि नफरती भाषणों के लिए किसी एक दल या धर्म को दोषी नहीं करार दिया जा सकता।
इसमें मुसलिम समुदाय की नुमाइंदगी करने वाले नेता भी पीछे नहीं हैं। उनमें से कइयों ने सार्वजनिक मंचों से जहरीले बयान दिए हैं। असदुद्दीन ओवैसी भी कम जहरीले बयान नहीं देते। हिजाब या फिर हिंदुत्ववादी नेताओं के भाषणों की प्रतिक्रिया में उनके बयान देखे जा सकते हैं। कई बार लगता है कि दोनों समुदाय के नेता धार्मिक विद्वेष फैलाना ही अपना कर्तव्य समझते हैं।
विचित्र है कि इस मामले में संचार माध्यम भी पीछे नहीं हैं। कुछ टीवी चैनल न सिर्फ सांप्रदायिक विषयों पर बहसें आयोजित कर दोनों समुदायों के नेताओं को जहरीले बयान देने को उकसाते हैं, बल्कि उनके प्रस्तोता खुद भी बढ़-चढ़ कर ऐसे नफरती बयान देते नजर आते हैं। समाज में ऐसे बयानों को लेकर एक कड़वा माहौल बनता है, मगर हैरानी की बात है कि पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है, जबकि ऐसे पर्याप्त कानून हैं, जिनके तहत नफरत फैलाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जा सकती है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि ऐसे मामलों में पुलिस शिकायत का इंतजार न करे, बल्कि खुद संज्ञान लेकर ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करे। देखना है कि पुलिस अदालत के इस आदेश का कितना पालन करती और कितनी सक्रियता दिखाती है।