इस जुड़ाव से सुख मिले, यह कौन नहीं चाहता? विचारणीय यह है कि इस सार्वभौम इच्छा के बाद भी क्या संबंध सुख देते हैं? सत्य यह है कि संबंध सुख नहीं देते, न ही दुख देते हैं। हां, हम इनसे सुख या दुख पाते हैं, यह अलग बात है। दरअसल, हमारे संबंध वैसे नहीं होते, जैसे होने की हम कामना करते हैं।
अगर बार-बार या हर बार किसी को संबंध में दुख मिले, तो उसे इतना तो समझ ही जाना चाहिए कि दिक्कत संबंध में या दूसरों में नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व या दृष्टिकोण में है। देखा गया है कि भावुक व्यक्तियों के लिए यह मानना कि किसी संबंध में मिलने वाले दुख के लिए वे ही जिम्मेदार हैं, अत्यंत कठिन होता है।
इसकी तुलना में प्रेम में प्राप्त असफलता का ठीकरा नियति या किसी अन्य पर फोड़ना एक आसान विकल्प होता है। यह भी है कि आप दूसरे को जो देंगे, वही आपको भी मिलेगा। हम जिससे संबंध में हैं या संबंधित हैं, उसे दुख देंगे, तो उससे भी हमको आखिर दुख ही मिलेगा।
प्रेम और घृणा के इस अंतर संबंध पर एक महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक शोध हुआ था। किसी विश्वविद्यालय की एक कक्षा के कुछ विद्यार्थियों से कहा गया कि कक्षा के बाकी विद्यार्थियों में से वे जिन्हें भी घृणित पाते हों, एक मिनट के अंदर उनका नाम लिखें। सभी विद्यार्थियों ने जो लिखा, वह एक-दूसरे को नहीं दिखाया गया। एक विद्यार्थी ने किसी को भी घृणित नहीं पाया, तो एक अन्य विद्यार्थी ने तेरह विद्यार्थियों के नाम लिखे, जिन्हें वह घृणित मानता था।
शोध के निष्कर्ष में एक अहम बात यह आई कि जिस विद्यार्थी ने किसी को घृणित नहीं पाया, उसे भी किसी ने घृणित नहीं पाया। दूसरी तरफ, जिस विद्यार्थी ने तेरह अन्य को घृणित पाया, सबसे ज्यादा विद्यार्थियों ने उसे भी घृणित पाया। इससे यह निष्कर्ष निकला कि हम लोगों को जैसा समझते हैं, वे भी हमें वैसा ही समझते हैं।
जब कोई व्यक्ति अहंकार से परिचालित होता है, तो सबसे पहले उसके निकट संबंधियों को इसका पता चल जाता है। अहंकार से ग्रस्त होने पर व्यक्ति सत्य और खुशी से अधिक महत्त्व अपने दृष्टिकोण को देने लगता है और उसे सिद्ध करने के लिए आक्रामक तक हो जाता है। अपने समाज में जिनसे उस व्यक्ति का कम मिलना-जुलना होता है, उनके समक्ष तो वह एक सुंदर मुखौटा लगा लेता है, पर उसके अपने संबंध इससे प्रभावित होने लगते हैं।
होना तो यह चाहिए कि जो ऊर्जा तर्क देकर अपने दृष्टिकोण को सच सिद्ध करने में व्यय होती है, वह मतभेद को दूर करने के लिए पहल करने में व्यय हो! साथ ही, जिससे मतभेद हो, उससे ऊपर दिखने की जगह तर्कशीलता का सकारात्मक उपयोग मतभेद को मिटाने में हो!
यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम संबंधों के निर्वहन को गंभीरता से लें और विवेकपूर्ण व्यवहार करें। अगर असंयम या विवेकरहित होकर किसी परिजन से बात करेंगे तो आपसी प्रेम और विश्वास का क्षरण होगा। अविनय का जहर तेजी से फैलकर किसी भी संबंध को शीघ्र ही विनष्ट कर देता है। यह अनुभवजन्य सच है कि परिवार के लोगों से या किसी स्वजन से दुखी और व्यथित व्यक्ति उतावलेपन में कुछ भी जाहिर कर देता है, जिनका स्थायी महत्त्व नहीं होता।
यह ऐसा ही है, जैसे नशे में कही गई बातों का बाद में कोई महत्त्व नहीं होता। रिश्ते की भलाई के लिए आवश्यक है कि हम विवेक से काम लें और ऐसे व्यथित या दुखी रिश्तेदार की किसी बात को बाद में पकड़ कर न बैठे रहें। उससे भी आवश्यक है कि ताना तो बिल्कुल ही न दें। लेकिन, क्या ऐसा हो पाता है?
तथ्य यह है कि हम नकारात्मक के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। लोगों के बुरे व्यवहार को अच्छे व्यवहार की अपेक्षा अधिक याद रखते हैं। इसके अतिरिक्त कभी-कभी हमारे व्यक्तित्व की कोई कमी हमारे व्यवहार में दिख जाती है, जिससे हमारे अपने आहत हो जाते हैं। मसलन, अपनी आदतों के गुलाम होकर हम आपसी संबंधों में भी गलत प्रतिक्रिया दे देते हैं या सही प्रतिक्रिया सही प्रकार से नहीं दे पाते हैं। यह अविनीत आचरण सामने वाले को आहत करता है और संबंध की मिठास और मजबूती को कम करता है।
अपेक्षित है कि हमें यह विस्मरण न हो कि संबंधित मित्र या रिश्तेदार हमारे लिए पूर्व में कितना कुछ कर चुके हैं। केवल हमारे मुख से उच्चरित शब्द सही और शोभन हों, यह पर्याप्त नहीं। आवश्यक यह है कि शरीरिक भाव-भंगिमाएं भी सम्मान देने वाले हों। हम जिस चीज का अनादर करेंगे, वह टिकती नहीं। अगर विवेकविरुद्ध कार्य या आचरण करेंगे, तो विवेक की वृद्धि तक रुक जाएगी। इसी प्रकार, विवेकरहित और प्रेमरहित व्यवहार निभाने से संबंध में आपसी प्रेम और विश्वास खो देंगे। अगर संबंध को स्थायी रखना है तो विवेक और प्रेमयुक्त व्यवहार को विषम परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ना एकमात्र समाधान-विषयक व्यावहारिक उपाय है।