हरीश चंद्र पांडे
हर जगह को बना दिया एक नक्शेबाज-सा ‘मेट्रो सिटी’। जिस भी शहर को देखा जाए, उसकी तासीर और पहचान, सब इस वैश्विक गांव की परंपरा में खत्म हो गए हैं। मुरादाबाद पीतल के लिए जाना जाता था। वहां पीतल का सामान ही नदारद है और वह प्रसिद्ध गली ही गायब दिखी, जहां एक साथ पीतल का छोटा-बड़ा काम करते हुए कितने कारीगर मिल जाते थे।
अलीगढ़ जाकर बेल्ट, ट्राफी और मेडल के कारीगर खोजा, तो वे वहां नहीं मिले। बेल्ट वाली गली को तोड़ कर वहां ‘मल्टीप्लेक्स’ बना दिया गया है। कारीगर अब मजदूर होकर कहीं और चले गए हैं। अजमेर गुलाब और गुलकंद के लिए प्रसिद्ध माना जाता था, वहां अब ये दोनों ही खोजने पड़ते हैं। कहां गए वे लोग?
अब किसी भी शहर में जाते हुए डर लगने लगता है कि बड़ी व्यावसायिक दुकानों और परिसरों ने उसे भी बदल न दिया हो। शहर भी कैसे अजीब से हो गए हैं। कानपुर की एक कनपुरिया बोली होती थी। वह सिरे से गायब है। कुछ लोग उसे अब किस्सागो किसी तरह जीवित कर रहे हैं। पर इस तरह कैसे? एक शहर एक जीता जागता जीवन दर्शन होता है। वह उसे रहना ही चाहिए।
मगर आज कस्बे भी एकदम आडंबरों में ढलते जा रहे हैं, गांव अब जबर्दस्ती शहर होने को व्याकुल हो गए हैं। हर हाथ में मोबाइल है। इसने शहरों की तासीर बदलकर सबको नकलची की तरह का कुछ बना दिया है। शहर भी कभी मौन होकर सोचते होंगे कि क्या थे हम और ये हमारे निवासी हमको क्या से क्या बनाते जा रहे हैं।
एक मजेदार कहानी है। एक नवयुवक अपनी ग्रामीण दादी को मुंबई लेकर जाता है। उसके दफ्तर में एक आयोजन है। वह अपनी देहाती दादी को सूती धोती की जगह जींस और सुंदर कुर्ता पहना कर ले जाता है। मगर कुछ ही पल मे दादी की बातों और सरल स्वभाव से सब कुछ सामने आ जाता है। युवक को पहले डर लगता है कि अब लोग क्या कहेंगे, मगर उसके बाद ठेठ गंवई अंदाज में दादी अपने लोकगीतों से सबका मन मोह लेती है और सब लोग दादी के साथ ठुमके लगाकर उस आयोजन को यादगार बना लेते हैं।
तब जाकर वह नवयुवक समझ पाता है कि जो जैसा है, उस पर लीपापोती करके उसकी मौलिकता को नष्ट करना मूर्खता है, नितांत नादानी है। आज इसी मौलिकता को त्याग कर झूठे और भ्रामक विज्ञापन के जंजाल मे फंसकर लोग डिब्बे जैसे फ्लैट में रहने जा रहे हैं। ये वही लोग हैं जो कभी एकल स्क्रीन या पर्दे वाले सिनेमाघर में जाकर फिल्म देखते थे। वहां जायज दाम में समोसा मिलता था। बाहर आते तो सब्जी वाले ठेले से अगले दिन का साग लेकर लौटते। मगर ये लोग अब ‘मल्टीप्लेक्स’ में फिल्म देखते हैं। दस या बीस रुपए का समोसा सौ रुपए में खरीदते हैं। ऐसा करते हुए पता नहीं, उन्हें कैसा महसूस होता है!
आज शहरों में एक और बात है। पहले कदम-कदम पर खुले मैदान होते थे। गुलमोहर और पलाश के दरख्त खड़े मिलते थे, अब गायब हंै। बाग-बगीचे कितने सुंदर होते थे, पर अब वे सीमेंट से पाट दिए गए है और वहां उद्यान बना दिए गए हैं। हर सौ कदम पर चाय की थड़ी होती थी, अब वह नहीं है, लेकिन चाय-काफी क्लब जरूर हंै, जहां दस रुपए वाली चाय अस्सी या सौ रुपए की मिलती है।
इतना ही नहीं, क्लब में दीवार पर लिखा होता है कि मौन रहें, चुप रहे, शोर न करें और लोग भी बैठे हैं। ऐसी मरघट जैसी जगह पर चाय-काफी कौन पिएगा। ढाबे पर परांठा खाने का लुत्फ अब शहर या कस्बे में मिलता नहीं। शहर में सुबह या शाम की सैर पर निकला जाए तो वह असामाजिक सैर जैसी लगती है। सबके कानों में मक्खी-सी ठुंसी रहती है, जिसे ‘इयरफोन’ कहते हैं। कोई किसी से नहीं बोलता।
पहले शहरों में सुबह-शाम सैर पर निकलने पर जगह-जगह मूंगफली, चाट, पापड़ बेचने वाले घूमते रहते थे। उनसे ही कितनी बातें हो जाती थीं। पर अब वे सब गायब हैं। वे क्या करें शहर में? अब तो सब कुछ ‘होम डिलीवरी’ होती है। अब यही चलन है। शहर में अब मेले नहीं लगते, अब कार्निवाल हो रहे हैं। मेले में जो चाट दस रुपए की मिलती थी, वह अब किसी ‘इवेंट कंपनी’ के ‘कार्निवल’ में सौ रुपए में भी मिल जाए तो गनीमत। ‘कार्निवल’ में बाकी सब भी अजीब और अटपटा-सा लगता है।
देश में कितने वैश्विक नगर बन रहे हैं, पर यह एक खतरा है। लोरी की मिठास का मुकाबला नहीं है। हम विदेशी अंदाज में जीने लग जाएं और अपने खानपान, रहन-सहन के तौर-तरीके को भूल जाएं तो यह फिलहाल शायद अच्छा लगे, लेकिन बाद में ये चीजें बहुत याद आती हैं। तब हाथ में सिर्फ अफसोस होता है!