संगीता सहाय
ऐसे ही एक परिचित बुजुर्ग इस आयु में भी नियमित योगाभ्यास करते हैं और प्रतिदिन अलसुबह दो-तीन किलोमीटर पैदल चलते हैं। अपने हमउम्र लोगों के साथ-साथ बच्चों, बुजुर्गों सभी से खूब बातें करते हैं।
राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं। वे जिनसे भी बात करते हैं, उसमें काम की बातें करने के साथ-साथ सबके साथ हंसते-हंसाते हैं और बेरोकटोक अपनी मनपसंद चीजें खाते हैं। उद्यान में जाते समय उनके कंधे पर हमेशा किताबों और अखबारों का एक झोला रहता है, जिन्हें वे खुद भी पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ने के लिए उत्प्रेरित भी करते हैं।
बड़ी बात यह कि उम्र के इस दौर में भी वे दवाइयों से कोसों दूर हैं। उनकी रचनात्मक गतिशीलता और खुशमिजाजी से भरपूर जीने का अंदाज बरबस ही लोगों को उनकी ओर खींचता है। उन जैसे तमाम लोगों का खुशगवार जीवन हम सबसे यह कहता है कि कुछ पल ठहरकर हम अपने-आप पर विचार कर लें।
जबकि इसके बरक्स आज के समय में पचास की उम्र पार करते या उससे पहले ही लोग कई छोटे-बड़े व्याधियों की गिरफ्त में आने लगते हैं। अलग-अलग प्रकार की दवाइयां जीवन का हिस्सा बनती जाती हैं। अहम बात यह कि लोग इसे ही सामान्य प्रक्रिया मानकर जीने को अभिशप्त हो जाते हैं। क्या यह स्थिति अपने-आप आती है, या फिर जाने-अनजाने हम खुद ही इसका कारण होते हैं? व्यस्तता और आधुनिकता के नाम पर लोगों की बिगड़ी जीवन-शैली, प्रकृति से लगातार दूर होते जाना, अपने आप में सिमटते जाना, बढ़ता प्रदूषण, मिलावटी भोजन, नकली दवाइयां, नशा आदि इसके अनेक कारण हो सकते हैं। पर एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण कारण है करीब-करीब हम सभी के द्वारा लगातार अपने जीवन को बनावटी बनाते जाना। बढ़ती उम्र के साथ अनावश्यक गंभीरता का चोला पहन लेना और मौज-मस्ती और आनंद के पलों से दूर होते जाना।
आज ज्यादातर इंसान भौतिकवाद के गिरफ्त में आ चुका है। घर, गाड़ी, बंगला, तमाम ऐशो-आराम के साधन, किलो-दस किलो सोने, चांदी और अथाह संपत्ति पाने की चाह में काम के नाम पर निरंतर भागता ही जा रहा है। असीम सुख की कामना में लगातार अपने ही बुने जाल में उलझता या फंसता वह अपना वास्तविक सुख-चैन खोता जा रहा है। अपरिमित दौलत आ जाने के बाद भी व्यक्ति संतुष्ट और सुखी नहीं हो पा रहा है।
बड़ी समस्या यह है कि या तो वह इन बातों को समझ नहीं रहा है या समझना ही नहीं चाहता। भ्रमित आमोद-प्रमोद और सुख की चाह में भटकते-भटकते इंसान अपने स्व का ही स्वाहा करता जा रहा है। बेशुमार सुख रूपी भ्रम का पीछा करते और अपने वर्तमान को दांव पर लगाते वह जीवन के असली ‘मौज’ यानी मन की शांति को ही खोता जा रहा है। इसका असर चुपचाप व्यक्ति के शरीर और मन पर कैसे और कितना पड़ता है, उसे इसका भान भी नहीं हो पाता। नतीजतन, अनगिनत बीमारियों की चपेट में आकर असमय ही बुढ़ापे और मौत को आमंत्रण दे बैठता है।
विचित्र है कि आज बहुत सारे लोगों के लिए ‘समय की कमी’ एक ‘वेदवाक्य’ बन चुका है। अपने आपको कथित रूप से शिक्षित और समझदार कहने वाले ज्यादातर लोग अधिक से अधिक व्यस्त रहकर या इसका दिखावा करने में ही अपनी अहमियत समझ रहे हैं। अपनी व्यस्तता का गौरवगान करते लोग इसी में अपनी सार्थकता समझ रहे हैं। ऐसे बनावटी जीवन में हंसी और आनंद का गुम होते जाना सहज ही है।
वास्तव में ‘मौज-मस्ती’ मनुष्य के एकरेखीय जीवन में आनंद का प्रवाह करता है। हम इस अनुपम धरा के हिस्सा हैं, इसके अंकों ने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया और जीवन के सुख का अमृतपान करने योग्य बनाया, इसकी अतुल्य छटाओं ने हमें अपने सान्निध्य में लिया यही इस नश्वर जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
इसलिए इंसान का पहला कर्तव्य है इसके हर पल को सानंद स्वीकारना और उसे मौज के साथ जीना। हम अपना विकास तो करें, पर साथ ही उस विकास की उपादेयता, महत्त्व पर भी विचार अवश्य करें। हमारे हर काम के मूल में मानसिक आनंद का भाव हमें निरर्थक करने से रोकेगा। वैसा काम जो हर्ष का लोप कर मानसिक संताप देता हो, हमारी सरलता और स्वाभाविकता छीन लेता हो, उसे अलविदा कह देना ही सही है।
जीवन पहले है, उसके बाद ही कुछ और। समग्रता से कहें तो जीवन के लिए और जीवन के होने तक ही सब कुछ है। इसलिए उसके तमाम दुश्वारियों पर फतह पाने के लिए सहज होकर जीने और जिंदगी की ‘मौज’ को कायम रखना आवश्यक है, जो हंसी और खुशी की फुलझड़ियों की दीप्त आभा में छिपा है।