सुरेश चंद्र रोहरा
हमारे गांव में एक समय में दर्जन भर अमराइयां थीं जो देखते-देखते कट गईं। वहां आज बस्तियां बस गई हैं। यह आज की आधुनिक जीवन पद्धति का नमूना है। गांव-कस्बे में रहने वाले लोग आमतौर पर वृक्षों से प्रेम करते थे, उनके महत्त्व को समझते थे, अमरैया सजाते थे। आम, जामुन और अन्य फलदार वृक्ष किसी मायावी चमत्कार से नहीं उगते थे।
हमारे पुरखों ने इन्हें बड़े जतन से लगाया होगा। उन्हें मालूम था कि आने वाली पीढ़ी के लिए ये कितने उपयोगी साबित होने वाले हैं। क्या ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने अपनी दृष्टि से आने वाली पीढ़ी को एक ऐसा प्राकृतिक संबल दिया था, विरासत दी थी कि जिसकी छाया में, हम सुख-समृद्धि से भरपूर और खुशहाल जीवन जीएं? मगर हमारी लालच और अकर्मण्यता की शायद कोई इंतिहा नहीं है।
एक अनपढ़ व्यक्ति भी इस मामले में अपनी संवेदना से बता सकता है कि वृक्ष हमारा जीवन है। कम संसाधन वाले लोग भी गांव या खेत में अपनी जरूरत से या कभी यों भी कहीं पेड़ लगा देते हैं, उसका पोषण करते हैं और उसे फलता-फूलता देख कर खुश होते हैं। उस पेड़ से उन्हें केवल संतोष मिलता है, लेकिन दुनिया को जीवन मिलता है। आज उन संवेदनाओं के संरक्षण का दारोमदार जिन हाथों में है, वे खामोश हैं।
सब कुछ जान कर भी लोग अनजान बनने का नाटक करते हैं। हमारे बीच इस मसले पर कोई गंभीर विमर्श और काम नहीं दिखाई देता। शहरों को जोड़ने के लिए उच्चमार्ग बन रहे हैं। बताया जाता है कि जितने हरे वृक्ष कटेंगे, उससे चार गुना ज्यादा सरकार और ठेकेदार के कांरिदे वृक्ष लगाएंगे। मगर हकीकत में इसी आश्वासन का इंतजार रहता है।
जहां उच्च मार्ग या एक्सप्रेस-वे बन रहे हैं वहां प्रतिदिन पेड़ कट रहे हैं। सोचने की बात है कि स्थानीय लोगों को इस काम में लगे देखना थोड़ा मुश्किल ही है। बल्कि अन्य प्रदेशों के लोग इस काम में लगे दिखते हैं। सवाल है क्या इसलिए कि स्थानीय लोगों या मजदूरों की ओर से वृक्ष काटने पर कोई आपत्ति उठ सकती है। कटने वाले वृक्षों में फलदार और छायादार भी होते हैं, जो कई दशकों में तैयार हुए होते हैं। एक समय सड़क बनने के बाद उसके दोनों ओर पेड़ लगाए जाते थे, जबकि अब बेहतरीन सड़कें बन रही हैं और उसके लिए पेड़ काटे जा रहे हैं।
शायद ऐसा हर एक जगह हो रहा है। कस्बे, गांव का नाम बदल दिया जाए, देश-दुनिया में यही हो रहा है। यह दिखावे की जिंदगी और दुनिया बन चुकी है, जहां संवेदनाएं मर रही हैं। कुदरत से मिली जिंदगी और संपत्ति को खत्म करने के खिलाफ कोई मजबूत आवाज नहीं दिखती।कहते हैं कि मनुष्य की तरह ज्ञान और संवेदना सृष्टि में किसी भी अन्य प्राणी में नहीं है। मनुष्य अपनी संवेदनाओं के कारण ही अन्य जीवों से अलग यानी मनुष्य है।
वह सृष्टि के कण-कण से प्रेम करता है। उसे यह ज्ञान है कि उसे आज इस सुंदरता के बीच तादात्म्य के साथ जीना है। जीवन में ‘शिवम’ का भी स्थान है और ‘सत्यम’ तो अंतरस्थ है। इस सबके बावजूद छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज करता मनुष्य क्या किसी बदलाव की आनुवंशिक बड़े बदलाव की मौन आहट सुन पा रहा है? जहां मुखर होना चाहिए, वहां लोग खामोश हैं।
यह सच है कि सरकार और सत्ता के सामने किसी वाजिब विरोध तूती की आवाज है। हम अपने दैनंदिन के काम में इतना डूब चुके हैं कि हमारे पास देखने-सुनने के लिए समय नहीं है। मगर क्या हम सभी ऐसे हो चले हैं? ऐसा संभव है। सच तो यह है कि बड़े छोटे लोक-लुभावन नारों और आज के दायरे में सिमटे बड़े और आभिजात्य कहे जाने वाले लोगों के भरोसे जंगल नहीं बच सकते।
इसके लिए साधारण आदमी को ही सामने आना होगा। गांवों में जंगल के आसपास बसे सामान्य गरीब को भी यह समझ और जुगत लगानी होगी कि वृक्ष की रक्षा कैसे की जाए। जंगल के वन अमले जिम्मेदारी लेने के मामले में क्या हैं, यह छिपा नहीं है। जंगल में जमीन पर काबिज होना, फिर कानूनी दांवपेच से पट्टे ले लेना सामान्य बात हो चुकी है।
विशाल जंगल अगर सिमट रहे हैं तो भविष्य में हम अपना अस्तित्व खो देंगे। सब कुछ गंवा देने के बाद अगर हमारी नींद खुलेगी, तंद्रा टूटेगी तो फिर यह दुर्भाग्य है और हमारे संवेदनशील होने पर भी प्रश्न-चिह्न। यह कैसा समय है कि जब हम तेज गति से चल और दौड़ रहे हैं, कहीं ठिठक कर देखने का हमारे पास समय नहीं है। हमारे आसपास प्रकृति के नष्ट होने की जो खाई खुद हम खोद रहे हैं, वह एक दिन हमारे अस्तित्व को समाप्त कर देगी।