मयंक मुरारी
भीड़ में आदमी खोता जा रहा है। शहर की कौन कहे, गांव में भी अब अपने लोग नहीं मिलते हैं। दरअसल, अपने की पहचान कठिन हो गई है। आदमी की भीड़ में दुनिया सूनी होती जा रही है। प्रकृति की समाप्ति के साथ जीवन-रस खत्म हो गया लगता है। उसके शरीर में सारे भौतिक तत्त्व हैं, लेकिन आत्मिक तत्त्व खत्म हो गए हैं।
यांत्रिक जीवन में प्रेम, करुणा और आनंद की जगह पद, पैसा और प्रतिष्ठा ने बना लिया है। भागमभाग के जीवन में दुनिया बहुत उदास-सी होती जा रही है। हम जीवन को ही स्वीकार नहीं करते हैं, तो उसके पीछे प्रकृति के असीम प्रेम और उससे मिलने वाला आनंद कहां स्वीकार्य होगा! प्रकृति को समझने के बजाय हम आम चलन को अपनाते हुए जीते हैं, तो इसका नतीजा भी हमें उठाना होगा।
पश्चिम के एक दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र ने एक किताब ‘नो एक्जिट’ लिखी। इसमें नरक का वर्णन है। उस जगह पर जीवन की सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं। वह सारी भौतिक व्यवस्था है, जिससे व्यक्ति का जीवन संपन्न हो। बस एक दिक्कत है। कोई वहां से बाहर नहीं जा सकता है। सब कुछ मन के मुताबिक है, लेकिन मन से बाहर कुछ नहीं है। उदासी का कारण यह द्वंद्व है। हम स्वयं से राजी नहीं है।
प्रकृति या ईश्वर ने जो दिया, उसी पर सवाल है। प्रकृति से मिली वस्तु को स्वीकार नहीं कर पाते हैं और कुछ चीजों के अभाव के लिए उलाहना भी देते हैं। प्रकृति को नकार की अवस्था ने बीच बाजार में हम सबको अकेला कर दिया है। जो मिलता है, उसे हम मजबूरी में स्वीकार करते हैं। चाहे वह पद हो, साथी हो, संतान हो, सुख हो या कुछ और। इस विवशता के कारण धीरे-धीरे एक उदासी का वातावरण बनता जाता है। थोड़ा गौर से देखें तो आज दुनिया उदास है, क्योंकि हमको जो मिलता है, उसे अहोभाव से स्वीकार नहीं करते हैं।
संसार वैसे भी आज दरिद्र बन गया है। अच्छे लोग आज कम हैं। जो हैं, वे भी पूरे खिले नहीं हैं। उन्नीसवीं सदी में साहित्य, विज्ञान, कला, राजनीति, दर्शन आदि क्षेत्रों में संपूर्ण व्यक्तित्व वाले अनगिनत लोग इस धरती पर ही तैयार हुए थे। आज बस उनकी सुगंध बसी और बची है। इस तरह के सुवास का कम होना भी उदासी को बढ़ाता है। आदमी के साथ प्रकृति में कई पशु, पक्षी और वनस्पति विलुप्त हो गए।
अंधेरे में रास्ता दिखाने वाली जुगनू अब कितनी जगहों पर आसानी से दिख पाती है? हमारी आंखों के सामने सुबह जगाने वाली गौरैया खत्म होने को है। वसंत में बहुरंगी होनेवाली पृथ्वी पर प्रकृति के रंग कम होते गए हैं। प्रकृति में वसंत, शरद और हेमंत का आधार रहे वनस्पति के जड़ कमजोर हो गए हैं। उसी प्रकार हमारे जीवन का वसंत हमारी आत्मीय जीवन पर निर्भर है। उसको मजबूत करने के लिए अपने जीवन में प्रकृति को केंद्रीय स्थान देना होगा। हम न जाने जीवन भर क्या खोजते रहते हैं, मगर वह मिलता नहीं है। जो भीतर हो, उसे बाहर खोजेंगे तो कैसे मिलेगा?
केवल यह क्षण ही सत्य है। यह पहली बात है, जो हमें समझनी होगी। जीवन में नए का बोध ही निरंतर प्रवाह का स्मरण है। रोज सब नया होता चला जा रहा है। कल जब हम उठेंगे तो नया होगा। आज शाम को जो सब पुराना है, वह कल बदल जाएगा। लेकिन आदमी पुराने में जीए चला जा रहा है। वह शब्द को पकड़े रहना चाहता है। जीवन को उत्सव बनाने के बदले हम शब्द का उत्सव मनाते हैं।
भाव के स्तर पर आनंद की अनुभूति हम ले ही नहीं पाते हैं। कहीं पढ़ा था कि हम जन्म से लेकर मृत्यु तक शब्दों के संसार में जिया करते हैं। विचार, स्मृतियां, कल्पनाएं और स्वप्न- ये सभी शब्द ही तो हैं। शब्द हमारे संसार और बाहरी जीवन से जुड़े हैं, जिसका उत्सव और आनंद से कोई जुड़ाव नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो सिकंदर जीवन भर सुख के लिए अकूत संपत्ति क्यों बटोरता रह जाता!
जीवन प्रतिपल नया है, अगर शब्दों से शब्दातीत की यात्रा हो। शब्दों की यात्रा हमारी बाहरी यात्रा है। भीतर की यात्रा का पहला पड़ाव, जिसके बाद विचार का तल आता है और उसके बाद दर्शन का तल आता है। जीवन के हरेक पल का आंनद लेना है, उसका उत्सव मनाना है तो हमें इस तीसरे तल के बाद चौथे तल की यात्रा करनी होगी, जिसे ध्यान का जगत कहां जाता है। इस तल पर हर पल का आनंद है।
इस तल पर हर क्षण उत्सव चल रहा है। एक्हार्ट टाल्ल अपनी पुस्तक ‘शक्तिमान वर्तमान’ में कहते हैं कि हम समय के अतीत और भविष्य पर जितना अधिक केंद्रित होते हैं, उतना ही अधिक हम वर्तमान को खो देते हैं, जो सबसे अनमोल चीज है। कहा गया है कि कल कभी नहीं आता है, तो नया भी कहीं भविष्य में नहीं होता है। हर पल नया है।