निधि गोयल
अमीर तबके महंगे से महंगे स्कूलों में अपने बच्चों को भेज कर खूब बड़ा बना लेना चाहते हैं तो अभाव से जूझते लोग भी चाहते हैं कि किसी तरह उनका बच्चा सरकारी स्कूल में ही सही, थोड़ा पढ़-लिख ले, ताकि अनपढ़ होने के नाते जो मुसीबतें उन्हें उठानी पड़ीं, वे उनसे बच सकें।
हालांकि इसका यह मतलब कतई नहीं कि सारी पढ़ाई करने का जिम्मा हमने या हमारे समाज ने ही उठा लिया हो। दूसरे देशों में भी शायद ही कोई माता-पिता या परिवार होगा जो न चाहता हो कि उनका बेटा या बेटी समाज में उनका नाम रोशन करें। यह तो एक सामान्य व्यवस्था बन चुकी है। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या सिर्फ परीक्षाओं में ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने की दौड़ ही शिक्षा और उच्च शिक्षा का अभिप्राय है? खासकर उस दौर में जब शिक्षा ज्यादा से ज्यादा मुनाफे की वसूली का व्यापार बन चुका है!
हमारे देश की जनसंख्या इतनी है कि कहीं सौ लोगों की दौड़ में जीतने वाला व्यक्ति या बच्चा हमेशा दस लोगों की दौड़ में जीतने वाले से बेहतर ही रहेगा… हर आयाम में। यह समझने वाली बात है। लेकिन यहां स्पर्धा ही इतनी है जिसमें आगे रहने की शर्त बच्चों पर पोत दी जाती है। कभी जानबूझ कर तो कभी अनजाने में ही सही। पर क्या यह सही है? यह कौन बताए कि कौन कहां कितना सही और कौन कहां कितना गलत है और इस होड़ में क्या कुछ छूट रहा है और उससे क्या जटिलताएं पैदा हो रही हैं!
सच यह है कि शायद हमेशा कहीं कुछ दबा-सा ही रह जाता है। हर अभिभावक के मन में कभी अपनी पूर्व असंतोष भावना या दिखावा होती है, जिसे हम संदर्भ के मुताबिक कुछ भी कह सकते हैं। लगभग सब अभिभावक की यही ख्वाहिश यही होती है कि काश हमारा बच्चा भी सौ में सौ नंबर प्राप्त करके दिखाए और फिर उसे हम विदेश भेजें। बच्चे को विदेश भेजने की इस इच्छा या सपने में फर्क बस यही है कि यह इच्छा सिर्फ अमीर तबकों के बीच पलती है।
गरीब तबके फिलहाल इस इच्छा से दूर हैं। हाल के वर्षों में सक्षम परिवारों में पढ़ा-लिखा कर या ऊंची पढ़ाई के लिए बच्चों को विदेश भेजने की इच्छा का चलन ज्यादा हो चला है। ऐसा लगता है कि बस यही बाकी था कि दिल से प्यारे अपने बच्चों को हर इंतजाम करके पढ़ाया-लिखाया जाए और अपने खून से सींचा जाए और फिर भेज दिया जाए खुद से सात समंदर पार किसी देश में। सिर्फ इस चाहत में कि उसे अच्छी नौकरी मिलेगी। आमतौर पर दिखने में अच्छी नौकरी मिल भी जाती है, क्योंकि बात फिर वही है कि सौ बटा दस का आंकड़ा अलग ही बात होती है।
कई बार लगता है कि ऐसे लोग कभी और किसी मोड़ पर तो थकेंगे, जब किसी आपात अवस्था में इन्हें अपने बच्चों के अपने पास होने की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होगी! शायद तब उन्हें लगेगा कि कहीं गलती तो नहीं कर दी अपने बच्चे को दूर देश भेज कर। आजकल तो यों भी एक बच्चे का चलन हो चला है, लेकिन दिखावे की भूख है कि उसे भी लोग भेज देते हैं। इस मसले की गंभीरता पर सोचने-विचारने की जरूरत हमें नहीं लगती या इसके लिए हमें वक्त ही नहीं मिलता, क्योंकि हमें तो अड़ोस-पड़ोस में झगड़े में दिलचस्पी लेने से भी फुर्सत नहीं मिलती। होश तब आता है जब ऐसी खबरों से गुजरना पड़ता है कि बेटा विदेश में था और यहां के घर में अकेली रहती मां का कंकाल मिला!
कभी लगता है कि शायद वही जमाना ठीक था जब परीक्षाओं में न सबसे ज्यादा नंबर लाने की होड़ थी, न ही विदेश भेजने के अनगिनत सपने थे। आज कहां जा रहे हैं, कभी पता ही नहीं चलता। सपनों की सीमा कहां खत्म होती है? एक मामला पड़ोस में था। इकलौता बच्चा चुन्नु बस दूसरी कक्षा में ही पढ़ता है। उसके अभिभावक खुद बहुत शिक्षित नहीं हैं, लेकिन संसाधन इतने हैं कि अपने बच्चे को विदेश ही भेजना चाहते हैं।
उनका मानना है कि करोड़ों की नौकरी करेगा वहां… यहां है क्या हमारे चुन्नू के लिए! सवाल है कि ऐसे लोग क्या कभी सोच पाते हैं कि दिनोंदिन अगर सभी की सोच ऐसी होती गई तो यहां कौन बचेगा? एक परिचित महिला का कहना था कि दो महीने से बेटे का कोई फोन भी नहीं आया… शायद वह अपनी पढ़ाई और काम में बहुत व्यस्त होगा। व्यस्तता का पहलू एक है, मगर खतरा यह है कि बेटे ने मां-बाप को भुला तो नहीं दिया होगा न! कभी सोचने के लिए मजबूर हो जाना पड़ता है कि सबकी सोच विदेश ही भाग रही है, ऐसे में काश कोई ऐसी सोच भी सामने आए और हम अपनी जड़ों के पास रह पाएं।