सरस्वती रमेश
मन, प्राण के प्रांगण में कुछ हलचल स्वाभाविक ही है। कोई गंध है जो बरबस नथुनों में चली आ रही है। सब कुछ बदला-बदला नजर आ रहा है। इस बदली फिजा का राज जानने के लिए अपने ऊंचे दर्जे के सुविधाओं से भरपूर अपार्टमेंट और फ्लैट से बाहर निकलना होगा। सिमटी-सिकुड़ी दुनिया से दूर उस ओर, जहां वसंत के दूत चले आ रहे हैं। जहां सरसों के पीले फूलों से खेत इठला रहे हैं।
आम की मंजरियों की आहट से बाग महकने लगे हैं। बगीचे इंद्रधनुषी फूलों का हार पहने धरती का तरह-तरह से शृंगाार करने में व्यस्त दिखने लगे हैं। भंवरे खुश होकर गुनगुनाते इधर-उधर उड़ रहे हैं। तितलियां खुश इतरा रही हैं और बिलों, खोखल में रहने वाले जीव-जंतुओं ने लंबे समय के बाद करवट बदली है। सब वसंत के आने के साथ ही एक खास ताजगी और खुद को नया-नया महसूस करने लगे हैं।
यह एक शब्दचित्र की तरह दिख सकता है, लेकिन असल में वसंत में प्रकृति नए उल्लास में होती है। सब कुछ नया-नया सा लगता है। नई धूप, नया पल्लव, नई मधुरता, नई गंध हवा में घुली हुई महसूस होती है। धरती से आकाश तक यह नवीनता छाई हुई लगती है। वसंत की तो शोभा ही निराली है। आते ही प्रकृति के कण कण में हलचल मचा देता है। यह बेवजह नहीं है कि वसंत इस मौसम में जितना लोगों के दिमाग में अंकित होता है, उतना ही यह कागजों पर साहित्य में दर्ज हुआ है।
निराला की पंक्तियां याद आ रही हैं- ‘नवगति नव लय ताल छंद नव/ नवल कंठ नव जलद मंद्र रव/ नव नभ के नव विहग वृंद को/ नव पर नव स्वर दे!’ वसंत प्रकृति के सौंदर्य का मौसम है। यह कहीं उल्लास की ऋतु है, कहीं ज्ञान की, कहीं तप की तो कहीं प्रेम की। मगर उसके हर स्वरूप में आनंद ही आनंद है। वसंत की हर गांठ आनंद रस से भरी हुई है। इस आनंद का रस लेना है तो ऋतु में आए वसंत को अपने भीतर भी महसूस करना होगा। इस मौसम के पलों की पहचान कर इसके उत्कर्ष को अपने भीतर भी अंकुरित करना होगा। रंगों के चमत्कार को जीवन और भावों में उतारना होगा। उसे सजाना-संवारना होगा। जैसे प्रकृति स्वयं को सजाती है। उसे स्थान देना होगा।
हमारे जीवन का वसंत हमारे मन के तारों से झंकृत होता है। देखना होगा कि उस तार में कहीं कोई उदासी की टूटन तो नहीं मौजूद है। कहीं कोई निराशा की जंग तो नहीं छिपी है किसी कोने में। हालांकि ऐसा होना असंभव नहीं है। यह जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन अगर यह है तो उसकी मरम्मत करनी होगी। अपने भीतर के वसंत ऋतु को जगाकर कर तैयार करना होगा, क्योंकि जहां वसंत है, वहां उदासी का कोई स्थान नहीं। मलिनता की कोई जगह नहीं। वसंत चमकते धूप का मौसम है। यह चटख रंगों का मौसम है, प्रेम के मधुर गीतों की बेला है। यहां दुख या निराशा का नामो-निशान नहीं। अगर है तो उसका हल है।
क्या वसंत के स्वागत के लिए हमने खुद को तैयार कर लिया है या फिर अब भी ऊल-जलूल चीजों से हमारा मन-मस्तिष्क भरा पड़ा है। कायदे से देखें तो हो तो यही रहा है कि हम वसंत का वास्तविक सुख चाहते हैं, लेकिन वसंत जैसा इंद्रधनुषी सुख बनावटी वस्तुओं में तलाशने लगे हैं। आनंद को खरीदकर घर लाना चाहते हैं। वसंत को शोर-शराबे में पाना चाहते हैं। पर सच यह है कि वसंत असीम शांति और मौन धारण करने वाला है। वह शोर-शराबे में कब किसे मिला है? उसकी पगध्वनि कलियों के चटखकर खिलने जितनी मंद है, कृष्ण के बांसुरी जितनी मधुर है। उसे महसूस करना है तो मन को शांत करना होगा।
वसंत की नवीनता का जश्न कैसे मन पाएगा, अगर हमारे भीतर कुछ भी नया न हो। कोई बदलाव न आए। कोई सृजन न हो। हम विचारों में लिपटी पुरातन की मैल को झाड़कर उसे चमका न दें, तब तक वसंत की आत्मा को किस प्रकार महसूस कर पाएंगे? ओशो ने कहा है- ‘ईश्वर हमारे उल्लास में है। उत्सव में है। उमंग में है। रस में है। छंद में है। संगीत में है। इसे दुख में, आंसू में खोजने का प्रयास न करें।’
इस कथन का पर्याय यही है कि ईश्वर चाहिए तो जीवन को वसंत बना डालिए। दुख के कारणों को अपने दूर कीजिए। अपने जीवन के हर क्षण को, हर परत को वसंत के पीत रंग से रंग डालिए। मुस्कुराइए कि जैसे वसंती हवा के प्रथम झोंकों में पलाश मुस्कुरा उठते हैं। महकिए कि जैसे वसंत ऋतु में महुआ महकता है। गाइए जैसे वसंत के आगमन पर कोयल की कूक गूंजती है। वसंत आनंद के हजारों बहाने लेकर आता है। हम किस बहाने को हंसने के लिए चुनते हैं, यह हम पर निर्भर है।