देवशंकर नवीन
आजकल सोशल मीडिया यानी फेसबुक-वाट्सऐप आदि का मंच पाकर रचनाकार बनने का कारखाना शुरू हो गया है! कुछ भी लिखकर लोग चिपका देते हैं। बहुत सारे लोग उसे पढ़े बगैर ‘लाइक’ का ऊर्ध्वमुखी अंगूठा लगा देते हैं। लेखक उसे अपनी सराहना समझ कर महीने-दो महीने के दौरान लिखी गई ‘पोस्ट’ को एकत्र कर उपन्यास या कहानी-कविता का संग्रह बना डालते हैं। चिंतनीय है कि जिस रचना को पाठक पढ़ भी न पाएं, उसकी सामाजिक उपादेयता क्या हो! हिंदी के सृजन-क्षेत्र में ऐसी भीड़ तेजी से बढ़ रही है।
जिस क्षेत्र में बेहतर कर सकते हैं, उसमें कुछ करें
सामुदायिक प्रसंग में यह प्रवृत्ति घातक है। साहित्य के सुकर्ताओं से निवेदन किया जाना चाहिए कि वे ऐसी घातक वृत्ति से साहित्य को बचाएं, अवांछित रचनाओं की तारीफ से खुद को बरजें। दुनिया में करने के लिए ढेर सारे काम हैं, साहित्य-सृजन किए बिना भी कई लोग महान हुए हैं। खुद को विशिष्ट बनाने की ललक बहुत सताए, तो वे अपनी प्रतिभा को पहचानें, जिस क्षेत्र में बेहतर कर सकते हैं, उसमें कुछ करें। अब तक जन-मन में जितनी घृणा फैल चुकी है, वह पर्याप्त से अधिक है। फिर साहित्य से जनसामान्य को दूर क्यों किया जाए!
अपठनीय रचना कभी संप्रेषित नहीं होती
शाश्वत साहित्य का उद्देश्य समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक बनाना होता है। अलग-अलग विधाओं की भाषिक संरचना बेशक भिन्न हो, पर पठनीयता हर रचना की प्राथमिक शर्त होती है। अपठनीय रचना कभी संप्रेषित नहीं होती। संप्रेषणीयता के बिना रचना का कोई मूल्य नहीं होता! व्यंजना-निरूपण से कोई रचना महान बनी या नहीं, यह तो बाद की बात होती है। रूपक-विधान से अपनी कहानियों-उपन्यासों को अनूठा बनाने के आग्रही रचनाकारों को प्रथमत: संप्रेषण की चिंता करनी चाहिए।
आलोचना को रचना का शेषांश इसीलिए कहा जाता है कि वह पाठकों को रचना के सही मर्म तक पहुंचाने का काम करती है। यह काम निंदा या विरुदावली से संभव नहीं होता। आलोचना, कृति और पाठक के बीच सेतुबंध बनाती है। झूठी सराहना या तंगदिल निंदा से लेखकों को भरमाने वाले कोई भी व्यक्ति आज तक सही आलोचक नहीं माने गए हैं।
अनुभूत सत्य को दबाकर कल्पित सत्य चस्पां करनेवाले रचयिताओं या समीक्षकों को तनिक ठहरकर सोचना चाहिए कि साहित्य ही उनकी मित्रता का आधार है, वे अपनी मित्रता के आधार के साथ प्रपंच क्यों कर रहे हैं? संतों का अनुगमन करते हुए भर्तृहरि ने ‘नीतिशतक’ में सन्मित्र उसे माना, जो लोगों को ‘पाप करने से बरजे, हित से जोड़े, गोपनीय प्रसंगों को गुप्त रखे, गुणों को प्रकाशित करे, आपद काल में साथ न छोड़े, अवसर आने पर सहयोग दे!’
पूर्वजों की ऐसी उक्तियों के बावजूद मित्रों की झूठी सराहना करनेवालों का उद्देश्य समझ से परे है। वस्तुनिष्ठता को परोक्ष कर नियोजित रूप से किसी कृति को ध्वस्त करने या श्रेष्ठ साबित करनेवाले समीक्षकों का सामाजिक सरोकार निश्चय ही संदिग्ध होता है। झूठ बोलकर मित्रों को तुष्ट करना, कुमार्ग की ओर धकेलना राजनीतिक लोगों का आचरण होता है, मित्र का नहीं।
प्रकृति-प्रदत्त किसी की अपंगता की खिल्ली उड़ाना बेशक ‘अप्रिय सत्य’ है, पर होशोहवास में नीतिविरोधी, जनविरोधी आचरण करनेवालों पर अंगुली उठाना कतई ‘अप्रिय सत्य’ नहीं है। यह ‘कुत्सित सत्य’ है। ऐसे सत्य को उजागर करना, ऐसे यथार्थ का विरोध करना, सर्वथा सामुदायिक हित का कार्य है। पर ‘होशियार’ लोग ऐसा नहीं करते हैं। ‘होशियार’ शब्द की ध्वनि पहले बहुत सकारात्मक थी। अब इसका उपयोग लोग धोखे से भी सकारात्मक रूप में नहीं करते। अक्सर ‘चालाकी’ और ‘धूर्तता’ के लिए करते हैं। सन् 1959 में ‘अनाड़ी’ फिल्म के गीत ‘सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी’ में शैलेंद्र ने भी इसी अर्थ-ध्वनि को महत्त्व दिया है।
इसी ‘होशियारी’ के कारण विगत चार दशकों से लोगों को ‘अप्रिय सत्य’ बोलने में असुविधा होने लगी है। जबसे लोगों ने देखा है कि युवा-पीढ़ी के मन-मिजाज पर नेता-अभिनेता-खिलाड़ी झट से खुद को अंकित कर देते हैं, वे साहित्य में आकर विचित्र हरकतें करने लगे हैं। लिखना सीखने से पहले लिखने लगते हैं।
वे सोचते तक नहीं कि एक अच्छे लेखक में भीतर एक पवित्र मनुष्य और एक उदार शिक्षक का होना जरूरी है। वे कभी नहीं सोचते कि कोई अच्छा नेता-अभिनेता-खिलाड़ी प्रशस्ति पा जाने पर भी अपने शिक्षक से मुक्त नहीं हो पाते। पर हमारे यहां तो शिक्षक हो गए लोग भी शिक्षक बने रहना नहीं चाहते।
जबकि ‘प्रिय सत्य’ जैसी कोई घटना अब नहीं होती। ‘प्रिय सत्य’ वस्तुत: ‘असत्य’ की परिभाषा है! ‘अप्रिय सत्य’ न बोलने का ध्वन्यार्थ है ‘असत्य’ बोलना। ‘सच’ कितना भी अप्रिय हो, अगर वह प्रकृति प्रदत्त नहीं है, तो उसे बोलने में संकोच नहीं करना चाहिए।
‘अप्रिय सत्य’ बोलने से खुद को रोक कर ‘प्रिय असत्य’ बोलकर लोगों को प्रसन्न करने की ‘होशियारी’ आत्मवंचना है। प्रशंसक बनाने की लालसा में झूठ बोलना, ‘अप्रिय सत्य’ बोलने से स्वयं को बचाना निस्संदेह वंचकों का काम है, साहित्यिकों का नहीं। इसलिए इस बात का कोई दुख नहीं होना चाहिए कि ‘सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी’।