अरुणा कपूर
अपने साथ कोई और भी उसी काम को कर रहा है… यह सोच भी मन को तसल्ली देती है। लेकिन यह ‘कोई’ होता कौन है? यह कोई भी हो सकता है, कोई घरेलू सहायिका भी। आधुनिक समय में परिवार सीमित होते जा रहे हैं। लगभग दो-तीन दशक पहले जब घर एक भरा-पूरा परिवार हुआ करता था- दादा-दादी, बेटी-बेटी, बहुएं, पोते-पोतियां और आने-जाने वाले मेहमानों से मानो घर एक छोटे-से मेले का स्वरूप धारण कर लेता था।
छोटे बच्चों को लेकर कोई समस्या ही खड़ी नहीं होती थी। वह कभी किसी की गोद में बैठ कर खाना खाता था तो किसी की गोद में चढ़ कर खेलता रहता था। नींद आने पर कोई भी उस छोटे-से बच्चे को नरम बिस्तर पर या पलने में सुला देता था। खाना बनाना हो, कपड़े धोना हो या झाडू-पोंछा करना हो, मिलजुल कर काम करने की एक परिपाटी थी जो परिवार को जोड़ कर रखने की एक मजबूत कड़ी थी। ऐसे में किसी बच्चे की मां को यह सोचना नहीं पड़ता था कि ‘मैं रसोई में काम करूंगी, तो मेरे बच्चे को कौन संभालेगा!’
कामकाजी महिलाएं चार दशक पहले के समय में भी हुआ करती थीं। डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक और अन्य कामों से जुडी हुई महिलाएं तब भी घर से बाहर अपना काम करने जाती थीं। उनके छोटे बच्चों की देखभाल घर पर रहने वाले परिवार के सदस्य सहर्ष करते थे। मुख्य रूप से दादा-दादी इसे अपनी जिम्मेदारी समझते थे। लेकिन अब समाज में बदलाव आ गया है। परिवार टूटते जा रहे हैं। पहले वाली चहल-पहल अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती। बस शादी या अन्य अवसरों पर ही रिश्तेदार एकत्रित होते हैं! वह भी जितना हो सके कम से कम समय के लिए! फिर वही सूनापन अपनी जगह पर वापस आ जाता है। परिवार में रह जाते हैं पति-पत्नी और एक या दो बच्चे।
यह आधुनिक शहर या महानगरों में रहने वाले परिवार का शब्द-चित्र है। मान लेते हैं कि छोटा परिवार, सुखी परिवार! यह भी समाज और देश के लिए शुभ संकेत है। ज्यादातर बड़े-बुजुर्ग अलग ही रहने लगे हैं। वजह कुछ भी हो सकती है। कई परिवारों में उनके बच्चें उन्हें अपने साथ रखना नहीं चाहते। बच्चे अपनी स्वतंत्रता को लेकर सतर्क हो गए हैं और अपने ढंग से अपना जीवन जीना करना चाहते हैं।
कई परिवारों में बुजुर्ग पति-पत्नी अहं को लेकर परेशान हैं और इस वजह से वे खुद अपने बच्चों से अलग रहना चाहते हैं। उन्हें भी अपना जीवन अपने ढंग से जीने की महत्त्वाकांक्षा होती है। यह अब निजी मामला बन चुका है। इसी वजह से घरेलू सहायिका को काम पर रखना अब जरूरी हो गया है। छोटे बच्चे तो घर में होते ही हैं। उनकी देखभाल भी उतनी ही जरूरी है। अगर कोई कामकाजी मां हैं तो उसका चिंतित होना स्वाभाविक है कि अपना कामकाज भी चलता रहे और बच्चे की देखभाल भी व्यवस्थित ढंग से हो।
बुजुर्गों के लिए भी शारीरिक परेशानी के चलते घर-काम के लिए घरेलू सहायिका या सहयोगी की जरूरत पड़ ही जाती है। ऐसी ही एक गृहिणी हैं जो बैंक में कार्यरत हैं। उनके दो छोटे बच्चे हैं जो स्कूल जाते हैं। अगर उनकी परवरिश के लिए घर में रहना है तो महिला को अपनी नौकरी से त्याग-पत्र देना पड़ सकता है, जिससे परिवार की आय में कमी आ सकती है।
ऐसा होने पर गृहस्थी की गाड़ी चलाना उस महिला और उसके पति के लिए मुश्किल काम है। घर में और कोई बुजुर्ग व्यक्ति भी नहीं है तो ऐसे में वह महिला क्या-क्या करे? उसने किसी एजंसी से संपर्क करके घर में पूरे दिन के लिए एक महिला को रख लिया है। इससे घर के कामकाज और बच्चों का खयाल रखने में मदद हो जाती है और इस तरह एक दोतरफा सहयोग की स्थिति बनती है।
ऐसी स्थिति में कुछ घरेलू सहायिकाएं सुबह से शाम तक घर पर रहती हैं और रात के समय अपने घर चली जाती हैं और कुछ को घर में ही रहने की जगह दी जाती है। समाज में गरीब तबके की महिलाओं के लिए यह आय और रोजगार का जरिया है। अफसोस कि समाज में इन्हें कथित मुख्यधारा की कामकाजी महिलाओं के बराबर सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता, जबकि घरेलू सहायिकाएं भी रोजगार ही कर रही होती हैं।
ऐसी श्रमिक महिलाओं को ‘घरेलू सहायिका’ को काम देकर समाज उनकी एक तरह से मदद भी कर सकता है। हालांकि यह उनके काम के बदले चुकाया गया पारिश्रमिक होता है। असल में हम जिस समाज में पलते-बढ़ते हैं, उसमें किसी व्यक्ति या समुदाय को देखने का नजरिया सामाजिक रिवायतें देती हैं। इसी के आधार पर हम व्यक्तियों की हैसियत का वर्गीकरण करते हैं और उसी नजर से उसे देखते हैं। जबकि मानवीयता की दृष्टि सबको बराबर मानने की कसौटी होती है।