मोनिका भाम्भू कलाना
एक दिन गांव में कहीं जाते वक्त रास्ते के किनारे स्थित एक घर के बाहरी हिस्से में बने कमरे की देहरी पर बैठे बच्चे पर नजर पड़ी। आंखों के आगे बहुत कुछ घूम गया और यादों की शृंखला बनती गई। दरअसल, कमरे में टेलीविजन चल रहा था और बच्चा उसे देखने के लिए अपने नहीं, पड़ोसी के घर के कमरे की देहरी पर बैठा हुआ था। कुछ बातें दिमाग में आर्इं तो थोड़ा ध्यान देकर देखा कि कहीं यह बच्चा देहरी पर किसी उपेक्षा की वजह से तो नहीं बैठा है। लेकिन मेरी आशंका गलत निकली तो राहत मिली। उस बच्चे के साथ उस घर के बच्चे भी थे। इस सामान्य और छोटे-से दृश्य से यह भी खयाल आया कि कितनी सहकारिता, साझेदारी, समभाव और सहयोग अब भी गांवों में बचा हुआ है जो नगरीकरण, बाजारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की भेंट नहीं चढ़ा।
ऐसा बहुत कुछ बचपन को बचपन और मनुष्य को मनुष्य बनाता है। पड़ोसी को अपने ही बराबर समझने की इंसानियत अब भी यहां पसरी हुई है। उनके सुख-दुख को साझा करने का भाव उनके संस्कारों में घुला हुआ है। महसूस हुआ कि पड़ोसी के घर की दीवार पर टंगे हुए बच्चे, कहीं भी जाते वक्त बगैर बतियाए हुए नहीं निकलने वाले लोग, गोबर की टोकरी सिर पर उठाए देर तक गुफ्तगू करती हुई औरतें, नरेगा में जाती हुई आजादी की सुगंध से महकती महिलाएं, हुक्के के पास गप्प लगाने के लिए बैठे लोगों का जमावड़ा, फुर्सत होते ही दूसरे को आवाज देकर बुला लेने का अधिकार, तमाम व्यस्तताओं से परे जरूरत में तुरंत हाजिरी देने वाले साथी, चौकियों को घर की शान समझने वाली सोच, किसी भी मोड़ पर दो-चार इकट्ठे होने पर शुरू होने वाली समझाइश, किसी को देखते ही चाय का न्योता देने वाली रीत, बुजुर्गों से मिल कर आने की आदत…! ये सब वे चीजें हैं, जो बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनका कहीं बचा रहना बहुत आशान्वित करता है। बस देखने की आंखें हों तो। वरना आधुनिकता और भौतिकता का चश्मा लगाने के बाद यही गांव बहुत पिछड़े भी दिखते हैं।
खुले आंगन, चौड़े दरवाजे ही नहीं, बड़ा दिल भी गांव और ग्रामीणों की अन्यतम विशेषताओं में से हैं। किसी के घर शादी हो, काम पूरा मोहल्ला करता है। चिंता सबकी साझी होती है। किसी भी सामान से लेकर मानव संसाधन तक की सहज उपलब्धता शादी वाले घर से ज्यादा पड़ोसियों की जिम्मेदारी समझी जाती है। किसी भी तरह का कार्यक्रम या काम हो ‘म्हारो थारौ कुण बांट्यो’ सिद्धांत पर अभी यहां सब कुछ तो नहीं, लेकिन बहुत कुछ अवश्य चलता है। ऐसा नहीं कि गांव में वैयक्तिकता और निजता की मांग नहीं है या यह बढ़ी नहीं है। लगातार बढ़ी है। संयुक्त परिवार प्रथा लगभग बिखर गई है। घर से बाहर शहरों की तरफ भागने का सिलसिला बढ़ ही रहा है। मगर सोचने वाली बात यह है कि शहरी बदलाव और ग्रामीण परिवर्तन में न केवल गति का, बल्कि गुणात्मक भिन्नता है। मसलन, गांवों में संयुक्त परिवार इस मायने में टूटे हैं कि भाई-भाई साथ नहीं रहते, लेकिन इस रूप में अब भी बचे हुए हैं कि बेटा अधिकतर मां-बाप के साथ ही रहता है। यह सही है कि गांव पारंपरिक ज्यादा हैं, बहुत सारी कुरीतियों को वे अब भी ढो रहे हैं, लेकिन भारतीय शहर भी इनसे मुक्त होने का दावा नहीं कर सकते। दिखावा अवश्य ज्यादा होता है। सोच के मामले में धरातल पर बहुत कुछ शहरों में भी वही होता, जिससे व्यक्तिगत रूप से ग्रामीण जूझते हैं।
गांव आज भी साझी संस्कृति की मुकम्मल गवाही देता है। वहां व्यक्ति भले ही कुछ का कुछ कर दे, अपने से पहले कई बार दूसरों का खयाल करता है। जैसी भी परिस्थिति मिले, उसी में अपने लिए रास्ता निकालने वाले लोग हर तरफ यहां मिलते हैं। नियति से शिकायतें और दौड़-भाग दोनों ही कम होती है। कितनी अजीब बात है कि आज भी बच्चे सदियों से चलते आ रहे खेल खेलते हैं। उसी तरह उनका पालन-पोषण होता है, जिस तरह उनके मां-बाप का हुआ था। दिखावे की संस्कृति से दूर शुद्ध और सच्चे सलीके आज भी बच्चों को घुट्टी में पिलाए जाते हैं। बहुत सारी चीजें हैं, जिनका लंबा क्रम है। महत्त्वपूर्ण यह है कि हर छिटकती चीज हमारी झोली से बहुत कुछ छीन लेती है और हम उस तरफ से बिल्कुल बेपरवाह होते हैं। ग्रामीण ही नहीं, सहज जीवन का जो सूत्र हमारे पूर्वजों ने हमें दिया था, हम उसे न केवल भूल बैठे हैं, बल्कि खोते जा रहे हैं। हमारा कर्तव्य है कि इस तरफ ध्यान देकर ग्रामीण जीवन के कुछ सकारात्मक पहलुओं से आगे की पीढ़ी को समय रहते परिचित करवाएं। उनके ज्ञान-आकाश में, भावनाओं में कुछ चिह्न छोड़ें, ताकि दुनिया के किसी भी कोने में जाने के बावजूद वे अपनी जड़ों से जुड़े रह सकें, उसे प्यार कर सकें।