सुरेश सेठ
अब उपलब्धि के लिए मेहनत का संदेश नहीं मिलता। पहुंचे हुए लोगों की बलैयां लेने का संदेश मिलता है। किसी वक्त राजा-महाराजा जब दरबार में पधारते थे, तो उनका अंगरखा उठा कर उनके मुसाहिब पीछे-पीछे चलते थे। राजा-महाराजाओं के दिन तो लद गए, लेकिन व्यावसायिक प्रासादों में अपनी काठ की हांडी को सोने की गगरिया बना भद्रपुरुष उधारी ताज ले नए महाराजा बने बैठे हैं।
उधारी इसलिए कि आज जो ताजदार हैं, कल होंगे इसे कौन जानता है। मुसाहिब जानता है। उसे तो जब कुर्सी पहलू बदले तो अपना अंदाज नहीं बदलना। उसका अंदाज वही रहेगा। गद्दीधारी की हर उल्टी-सीधी पर मरहबा कह कर विस्फारित नेत्रों से उसे देखना कि आप जैसा आला हुजूर न कोई पहले हुआ, न कोई बाद में होगा। जिंदगी चाहे तेजी से बदल गई, लेकिन प्रशस्तिगायन का अंदाज वही पुराना रहा। नेता सफल से असफल होते रहें, उनकी गठरी उठाने वाला कभी असफल नहीं होता।
मेहनत से सफलता की सीढ़ी आज नसैनी भी नहीं बन पाती। मगर वह सफलता जो मुसाहिबी से शुरू होती है और मसखरेपन में बदल जाती है, सदाबहार है। कल जो मसखरे लगते थे, आज वे गद्दी हथियाने की दौड़ में मार्गदर्शक बन गए। कल बुद्धिमान की परख होती थी, आज चतुर सुजान की होती है।
अब यह सफलता का सूत्र घर-घर चलाया जाए कि जिंदगी के मुशायरे में सबसे अच्छा श्रोता वह है, जो आपका शेर अर्ज होने से पहले ही ‘वाह-वाह’ की झड़ी लगा दे। नई जिंदगी का ध्वजवाहक वह है, जो विपक्षी को नेस्तनाबूद करने के लिए निरंकुश हो, आरोपों की बरसात कर दे, और फिर सरे-बाजार सिर धुने कि उसके आरोपों की चिल्लाहट अभी तक अपराध करार देकर विरोधी का कचरा क्यों नहीं कर सकी?
आज कोई जिंदगी से लेकर सत्ता की दौड़, और समाज सेवा से लेकर राजनीति के दौड़ में आगे हो जाने की इच्छा रखने वाले इन महानुभावों से यह पूछने की जुर्रत नहीं करता कि आपके ऊपर लगे कथित अपराधों की आरोपित फेहरिस्त बरसों पुरानी हो गई, लेकिन फिर भी आप अपनी हर दौड़ जीतते चले गए। न्यायिक पीठ को रंज है कि राजनीति के अलंबरदार अपराध के आरोपों का तिलक लगा कर बरसों से विधान भवनों में दनदना रहे हैं। उनके मुकदमों की तारीख पर तारीख लगती है, लेकिन फैसला नहीं होता कि आरोपों को अपराध ही घोषित कर दें।
कानूनविदों ने बार-बार आग्रह किया कि भई, अपने सामाजिक और राजनीतिक जीवन से इन आपराधिक तत्त्वों का सफाया करो, लेकिन जब तक आरोपी न्याय प्रक्रिया से गुजर कर अपराधी न घोषित हो जाएं, दंड न पा जाएं, मेरी और आपकी तरह मासूम हैं। उन्हें समाज को दीया दिखाने का पूरा-पूरा हक है, चाहे इस दीये के नीचे फैला अंधेरा कम करने का प्रयास कभी नहीं होता, बल्कि वह और बढ़ जाए तो अच्छा, क्योंकि इससे उनके अपराधों का अतीत और गहरी धुंध में छिप जाएगा।
मेहनतकश कामगार इनके प्रभा-मंडल से बाहर रहेगा, जब तक कि वह इनका अच्छा मुसाहिब बनना नहीं सीख जाता। आज चाटुकारिता से बड़ा और कोई रास्ता नहीं, हथेली पर सरसों जमाने का, बहिष्कृत से सफलता की सीढ़ी के अंग-संग होने का। जिनकी मुसाहिबी कर रहे हो, उन्होंने भी तो कभी यही रास्ता अपनाया था। आज यही रास्ता वे अपने वंशजों को दे रहे हैं।
उसे लगता है कि कतार का आखिरी आदमी बन कर अन्त्योदय का इंतजार करने की कोई तुक नहीं। अब तो यह वक्त आ गया है कि यह कह सको कि यह कतार जहां हम खड़े हैं, वहां से शुरू होती है, और हमारे भाई बंदों और वंशजों पर आकर खत्म हो जाती है। मगर इसके लिए जरूरी है कि आपके ऊपर किसी न किसी कृपानिधान का हाथ रहे, जो बरसों से आरोपी है।
न्यायपीठ ने कहा कि जिसके विरुद्ध कानून तोड़ने की गंभीर शिकायत हो, उसे चुनाव लड़ने के नाकाबिल घोषित कर दो। मगर भला ऐसे सुझाव भी कोई मानता है। यहां हर उजाले के मनसबदारों के अंधेरे चेहरे हैं, और वे बर्नार्ड शा की उस उक्ति को नहीं मानते कि राजनीति खलनायकों का अंतिम शरणस्थली है। वे साबित यह करने का प्रयास करते हैं कि वे स्वयं महानायक हैं, और समाज का कायाकल्प करके ही दम लेंगे।
जब-जब सत्ता का चंवर बदलता है, कल के अपराधी नैतिकता के अलंबरदार हो जाते हैं, और जो कुर्सी से लुढ़के उनके लिए दारोगा जिंदान पैदा करके उन्हें तहखानों के अंधेरों में पहुंचा देने का कार्यक्रम बना देते हैं। यों यह खेल चलता रहता है। आरोपों की यह खनखनाहट मीडिया की सुर्खियां बन कर जीती बाजी को हार में बदल देने की आकांक्षा पालती है। दूर कहीं वंचित वर्ग अपने अभाव और भुखमरी के अंधेरों में इन अपराधियों का शिकार तो हो रहा है, उन्हें कभी बेनकाब नहीं कर पाता। उसके पास और विकल्प क्या है? सिवा इसके कि वह सबकी जी-हुजूरी करे, जो आरोपी हैं उनकी, और जो अपराधी हैं, उनकी भी।