राजेंद्र वामन काटदरे
इसलिए 1939 से 1945 के बीच एक समय उस वक्त के लोगों को तत्कालीन घटनाओं को देखते हुए कहीं न कहीं ऐसा लगा ही होगा कि अब विश्व का अंत आ गया है। मगर इसे मानवीय जिजीविषा कहें या इस विश्व को फिनिक्स पक्षी कहें कि जो राख से भी जी उठता है।
मानव ने फिर से नया चोला पहना या कहा जाए कि पहले से ज्यादा मजबूती से सिर्फ जापान ही नहीं, बल्कि सारा विश्व खड़ा हुआ। विश्वयुद्ध के बाद से यानी बीते पचहत्तर सालों में मनुष्य ने असाधारण प्रगति की है, प्लेग, फ्लू, कैंसर और एड्स जैसी अनेक बीमारियों, महामारियों का सामना किया, कई बीमारियों को काबू में किया। समूची दुनिया में मशीनीकरण तो ऐसा जबरदस्त हुआ कि अब इसकी कोई सीमा नहीं दिख रही है। फिर ‘सुपर कंप्यूटर’ और मोबाइल के कारण हर जानकारी, हर एक डेटा अब हमारी अंगुलियों पर होती है।
अक्सर जिस तरह के उथल-पुथल देखने में आते हैं, उसके मद्देनजर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही तीसरे विश्वयुद्ध के बारे में सोचा जाने लगा और कयास लगाए जाते रहे कि तीसरा विश्वयुद्ध परमाणु बम वाला होगा या जैविक हथियारों वाला। अब इसे किसी देश की सोची-समझी साजिश कहें या मानवीय भूल का नतीजा, लेकिन समूचे विश्व ने मानो तीसरे महायुद्ध की तरह ही कोरोना की महामारी को झेला।
अब भी इसकी आशंका कायम है। लाखों लोग अब भी बीमार हैं, लाखों अपनी जान गवां चुके है, करोड़ों रोजगार गवां बैठे हैं। वैश्विक मंदी के साफ आसार हैं, लेकिन यह भरोसा कायम रखने की जरूरत है कि इसमें से भी सिर्फ भारत नहीं, बल्कि सारा विश्व बाहर निकलेगा। यह विश्व और निखरेगा, और ज्यादा प्रगति करेगा।
अनुभवों के मद्देनजर जब हम कहते हैं कि विश्व करोना नामक महामारी से बाहर निकलेगा, लोग और निखरेंगे, दुनिया और ज्यादा आधुनिक होगी, और ज्यादा प्रगति करेगी तो सौ साल बाद यानी 2123 में जब आज की हमारी पीढ़ी नहीं होगी, मगर उस वक्त क्या हो रहा होगा, उस वक्त जीवन किस प्रकार का होगा इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
मसलन, यह देखा जा सकता है कि तीस-चालीस साल पहले कंप्यूटर को स्टार्ट करने के लिए डिस्क आपरेटिंग सिस्टम चलाया गया था, जिसकी पचासों कमांड को याद रखना पड़ता था। डेटा को संभाल कर रहने के लिए 1.2 एमबी और 1.44 एमबी की फ्लापियां थी, मगर देखते ही देखते कंप्यूटर स्मार्ट होता गया और अब उसकी क्षमता और मेमोरी टेराबाइट जैसे मानक में गिनी जाती है। आज हमारे हाथ में मोबाइल के रूप में अत्याधुनिक लघु कंप्यूटर ही है। मोबाइल के आगमन ने कैमरा, घड़ी, संगणक या कैलकुलेटर जैसे अनेक उपकरणों को बेमानी बना दिया है।
जब हम कल्पनालोक में जाकर देखते हैं कि यह विश्व 2123 में कैसा होगा, तब आश्चर्य से मुंह खुला का खुला रह जाता है, क्योंकि विज्ञान दिन-प्रतिदिन प्रगति कर रहा है, नित नए प्रयोग, नित नई खोज की जा रही है। तो बहुत संभव है कि कंप्यूटर उस जमाने में हम पर राज करें, क्योंकि दिनभर मोबाइल का प्रयोग हमें उसी दिशा में ले जा रहा है, जिसका हमें पता भी नहीं चल पाता। उस जमाने में शायद नाश्ता, दोपहर का या फिर कोई भी खाने की जरूरत ही महसूस न हो।
एक गोली खा लेने मात्र से पेट की भूख मिट जाया करे और खाना खाने के लिए शायद किसी खाने की मेज या टेबल तक जाने की जरूरत ही न रहे। विज्ञान की ताकत की जैसी घोषणाएं चल रही हैं, उसमें सौ साल बाद शायद छुट्टियों में लोग चांद या किसी और ग्रह पर जाया करेंगे। लोगों की पगार जो किसी समय कुछ सौ रुपए होती थे, वर्तमान में लाखों रुपए तनख्वाह मिलती है। शायद सौ साल बाद करोड़ों या अरबों रुपए के रूप में पगार बांटी जाए।
दुख है तो सिर्फ इस बात का कि प्रगति की इस दौड़ में हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। एक बार यह सोच कर देखने की जरूरत है कि अब धूप, जो विटामिन-डी का प्राकृतिक स्रोत है और मुफ्त में प्राप्य है, हमें आज नसीब है। वहीं आज हम सुबह वातानुकूलित गाड़ी में बैठ कर दफ्तर जाते हैं और सूरज ढलने के बाद ही घर पहुंचते हैं। यानी विटामिन डी के लिए गोलियां खाना ही हमारे नसीब में है।
सच यह है कि हम अपनों से भी दूर होते जा रहे हैं। पहले छुट्टियों में काका या मामा के घर जाने की धुन लगी रहती थी, लेकिन अब फोन पर महीने भर में एकाध बार उनसे बात करना भी दूभर हो गया है। वाट्सऐप पर ‘गुड मार्निंग, गुड नाइट’ का संदेश कर लेने भर से या किसी के निधन पर ‘आरआइपी’ लिख देने मात्र से हमें लगता है कि हमने अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर दिया। सौ साल बाद की बातें सोच कर लगता है कि काश इस अंधाधुंध प्रगति के साथ हम प्रकृति, आपसी रिश्तों और मानवता को न भूलें।