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संस्कार और समाज: कथनी और करनी के सामंजस्य से घटेगी अधिकार और कर्तव्य के बीच की दूरी

लोगों का भरपूर सम्मान इसलिए नहीं करना चाहिए कि यह उनका अधिकार है। बल्कि इसलिए कि ये हमारे संस्कार हैं। दुर्भाग्य से मनोवृत्ति ऐसी हो गई है कि जो मिला, उस पर अधिकार और जो नहीं मिला, उससे परेशान।

Advice, Counselling
प्रतीकात्मक तस्वीर।

राजेंद्र प्रसाद

समय जिस तेजी से बदल रहा है, लोगों के स्वभाव, उनकी आदत, नीति, नीयत और सोचने का ढंग भी उससे प्रभावित हुआ है। लगभग हर व्यक्ति स्वार्थ, संकीर्णता, लालच और चतुराई के दांवपेच में इतना उलझा हुआ है कि उसे अपने स्वार्थ-हित में ही जीवन की सब भलाई दिखती रही है और उसके लिए वह निरंतर बेखटके जुटा रहता है। ऐसी स्थिति में भलमनसाहत की गुंजाइश दम तोड़ती लगती है। सदियों से सीधापन और सादगी जीवन के अभिन्न अंग होते थे, अब वे बदलते समय की चकाचौंध में सिमट रहे हैं।

कटु सत्य है कि हम अपने अधिकारों के लिए बहुत ज्यादा जाग्रत हैं और कर्तव्यपथ को तिलांजलि देते प्रतीत होते हैं। हकीकत में कर्तव्य और अधिकार के बीच कोई लड़ाई नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनके मिश्रण और संतुलन के सहज भाव से आगे बढ़ना चाहिए, ताकि हम निश्चिंत होकर कुछ सही करने के लिए निरंतर प्रेरित होते रहें।

गौरतलब है कि हमारे भीतर दो तरह की शक्तियां संघर्ष करती रहती हैं। एक, जो कुछ कार्यों के लिए कहती हैं, जो हमें करना चाहिए और दूसरी, हमारे स्वार्थ-लोभ से प्रभावित होकर कुछ सही करने से रोकती है। यथार्थ में अधिकार और कर्तव्य के बीच सकारात्मक और नकारात्मक का अद्भुत गठजोड़ है। उदाहरण के रूप में महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन को मोह रूपी ऊहापोह ने घेर लिया और वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए तो भगवान कृष्ण को ‘गीता ज्ञान’ देकर उनको कर्तव्य के लिए प्रेरणा-जोश भरने का मार्ग अपनाना पड़ा।

जब हम खुद को निरपेक्षभाव से खंगालते हैं, तो कर्तव्य-पालन से ही अधिकार पैदा होता दिखता है। जीवन में सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देकर हम चलेंगे तो संतुलन बनाने की बात खुद अंतर्मन में उतर आती है। बहुत बार हम अपनी निराशा को बढ़ाने के लिए खुद जिम्मेदार होते हैं, लेकिन दूसरों को दोषी मानने के भ्रम से उभर नहीं पाते। ऐसे में आंतरिक अशांति का रास्ता भी खुलता है। अधिकतम पाना, नकारात्मक विचार और खोखली भावनाएं हमें कर्तव्य से भागने का पर्याप्त मौका देती हैं।

निस्संदेह हक-हकूक के लिए हम निरंतर प्रयासरत और जाग्रत रहते हैं, पर कर्तव्य से भागेंगे तो निराशा का अनचाहा भय हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा। सोचना चाहिए कि क्या हमारी जवाबदेही कर्तव्य के प्रति नहीं है? भारतीय परंपरागत चिंतन भी कहता है कि जिस प्रकार दूसरों के अधिकारों का सम्मान मानव का कर्तव्य है, उसी प्रकार अपने सम्मान की रक्षा भी उसका कर्तव्य है।

अधिकार और कर्तव्य के बीच अंसतोष व्याप्त होना स्वाभाविक है और किन्हीं मामलों में उथल-पुथल भी मचती है। कौन कहता है कि हमें अपने अधिकार के प्रति सचेत नहीं होना चाहिए? लेकिन कर्तव्य का खयाल भी उसी रफ्तार से रखना चाहिए, जिससे हमारे जीवन-मूल्य सकारात्मक, यथार्थपरक, ऊर्जावान और संतुलित बने रहें। इसमें कोई दो राय नहीं कि कुछ न कुछ कर बैठने को ही कर्तव्य नहीं कहा जा सकता। अधिकार जताने से अधिकार स्वयंसिद्ध नहीं होता।

अधिकार पाना और अधिकारी होना, एक ही बात नहीं हो सकती। अधिकार के लिए संघर्ष करना कोई पाप नहीं, बल्कि कर्तव्य है। पर अपने कर्तव्य का सही ज्ञान न होने से अपने देश, समाज, परिवार और मानवता के साथ वास्तविक न्याय नहीं हो सकता। यकीनन एक का कर्तव्य दूसरे का कर्तव्य नहीं हो सकता। कर्तव्य ऐसा आदर्श है जो कभी धोखा नहीं दे सकता और धैर्य एक ऐसा कड़वा पौधा है, जिस पर फल हमेशा मीठे आते हैं। इसलिए कर्तव्य-पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।

उदाहरण के लिए रिश्तों में भी कर्तव्य और अधिकार का महत्त्व है, जो बिना कहे सब कुछ सह जाते हैं और दूर रहकर भी अपना कर्तव्य निभाते हैं, वही रिश्ते सच में अपने कहलाते हैं। अपनापन छलके जिसकी बातों और व्यवहार में, वही अपना होने का हकदार है। जब हम किसी पर हद से ज्यादा अधिकार जताते हैं, तो वह व्यक्ति धीरे-धीरे आपकी कद्र करना कम कर देता है।

लोगों का भरपूर सम्मान इसलिए नहीं करना चाहिए कि यह उनका अधिकार है। बल्कि इसलिए कि ये हमारे संस्कार हैं। दुर्भाग्य से मनोवृत्ति ऐसी हो गई है कि जो मिला, उस पर अधिकार और जो नहीं मिला, उससे परेशान। अधिकार की सुषुप्त जागृति के लिए यह भी कहा जाता है कि सिर्फ प्राण निकल जाने पर ही मौत नहीं होती, मरा हुआ वह भी है, जो खामोशी से अपने अधिकार मरते हुए देखता है।

यथार्थ में जो अपने कर्तव्य को अच्छी तरह करने की शिक्षा पा चुका है, वह सभी कामों को भली-भांति करेगा। अधिकार उपयोगिता की परवाह नहीं करता। जिंदगी आधी कर्ज तो आधी कर्तव्य से जुड़ी बताई गई है। ऐसे में कथनी और करनी के सामंजस्य से अधिकार और कर्तव्य के बीच की दूरी भी समीपता में बदल सकती है। हमें खुद को जगाने की जरूरत है, औरों को जगाना है, तभी सब कुछ जगा हुआ लगेगा। वीर या महान बनने के लिए मनुष्य को अपने कर्तव्य अधिक मात्रा में निभाने पड़ते हैं।

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First published on: 26-05-2023 at 05:01 IST
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