गौरव बिस्सा
स्पष्ट था कि पुलिस अफसर बने छात्र ने अपने गुरु का मान रखा। प्राचीन काल में बच्चों को गुरु के आश्रम में शिक्षा के लिए भेजा जाता था। उस समय बालक पर पढ़ाई का किसी प्रकार का बोझ न डाल कर संस्कारों की शिक्षा दी जाती थी, क्योंकि मनुष्य के जीवन में संस्कार ही वह संपत्ति है, जो मनुष्य को एक सफल सुनागरिक बनाती है। अगर किसी के पास अकूत संपत्ति हो और वह ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहा हो, लेकिन जब तक उस मनुष्य में संस्कारों की तिजोरी नहीं होगी; तो उस संपत्ति का कोई मोल नहीं रह जाता।
मगर क्या आज की शिक्षा पद्धति में यह संभव हो पाएगा? आज के समय के कारपोरेट प्रणाली से चल रहे स्कूलों, कालेजों और कोचिंग केंद्रों में पढ़ रहे बच्चों से क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं। शिक्षा लेना और शिक्षा खरीदना; दो अलग अलग विषय हैं। शिक्षा लेने पर संस्कार निर्मित होते हैं, जबकि शिक्षा खरीदने पर विद्यार्थी सेवा का उपभोक्ता बन जाता है।
स्पष्ट है कि जब उपभोक्ता किसी वस्तु को खरीदेगा, तो उसका मोल-भाव करेगा ही। गुरुकुल में शिक्षा बेची नहीं जा रही थी, शिक्षा को ग्रहण किया जा रहा था। आज शिक्षा को बेचने के लिए बड़े कोचिंग केंद्र माल की तरह खुल रहे हैं।
जब अभिभावक अपने बच्चे को किसी कोचिंग केंद्र में दाखिला कराने जाता है तो वह वहां यह नहीं देखता कि जो शिक्षक उसके बच्चे को पढ़ाएगा, उसके पास खुद कितने फीसद अंकों की डिग्री है या उसके नैतिक मूल्य क्या हैं? अभिभावक बस यही देखता है कि वहां बच्चे को भौतिक सुविधाएं क्या मिलेंगी। अकादेमिक मूल्यांकन तो मानो हो ही नहीं रहा।
यह नहीं देखा जाता कि कोचिंग केंद्र का क्या माहौल है? यहां जो बच्चे पढ़ रहे हैं उनकी पढ़ाई में कितनी रुचि है और शिक्षक कैसे हैं? अभिभावकों की सोच है कि जो संस्थान ज्यादा फीस लेता है, वह पढ़ाई कराने में भी अव्वल होता होगा।
जिस विद्या से सिर्फ आजीविका चलाना सिखाया जाए और रट कर अंक लाए जाएं वह अपरा विद्या है। मानवीय मूल्यों और संस्कारों की शिक्षा परा विद्या कहलाती है और वही मानो गायब है। जो बच्चा मोटी फीस देकर पढ़ेगा, वह यह भी चाहेगा कि सेवा करने के बजाय किसी कंपनी में मोटा ‘पैकेज’ हासिल करे।
अभिभावक भी यही मानते हैं कि कोचिंग केंद्र से पढ़ कर निकला बच्चा ही सफल होगा। उन्हें यह मालूम नहीं है कि यहां से निकला बच्चा मोटी तनख्वाह तो हासिल कर लेगा, लेकिन वह संस्कार कहां से लेगा, जो गुरुकुल में मिलता था। इस समय हर विद्यार्थी विषय को रट लेने में व्यस्त है।
उसे उस तथ्य या जानकारी के महत्त्व से कोई सरोकार नहीं है। इसी वजह से नैतिक मूल्यों में पतन हो रहा है। वर्तमान विद्यार्थियों को जानकारी और ज्ञान तो बहुत है, लेकिन जीवन-विज्ञान में वे दो कदम पीछे हैं। उनमें वे संस्कार नहीं हैं, जो देश और समाज का कल्याण सिखा सकें। अभिभावक और उनके शिक्षक भी उनसे यही चाहते हैं कि भले वे सुनागरिक बनें या न बनें, लेकिन अच्छी नौकरी और पैसा उन्हें अवश्य मिले।
वास्तविक शिक्षा व्यक्ति में उत्तम संस्कारों, विनम्रता, अहंकार रहित व्यवहार और अंतस के आनंद का जागरण करती है। तथ्यों को घोटना शिक्षित होना नहीं, बल्कि उनको समझकर, उनका विश्लेषण करके समाज के लिए कुछ उपयोगी काम करना ही शिक्षित होना है। यही तो शिक्षा का पहला उद्देश्य है।
ये तथाकथित शिक्षण संस्थान कितनी भी बड़ी तनख्वाह दिलवा दें, लेकिन अगर विद्यार्थी में मानवीय गुणों का विकास न कर सकें, तो वह शिक्षा व्यर्थ ही है। मनुष्य का गुण है समानुभूति, दूसरों के दर्द को समझने का विवेक, उत्तम चरित्र और राष्ट्र के प्रति अगाध समर्पण। ये सब कम होता जा रहा है। अपरा विद्या का तथ्यों पर बल है। मानविकी के विषय गौण हैं। यही बड़ी समस्या है।
भ्रष्ट आचरण का कारण भी शायद यही तथाकथित शिक्षा है, जो व्यक्ति को सिर्फ अर्थ अर्जन के लिए मजबूर करती है, क्योंकि विद्यार्थी ने पढ़ाई के दौरान बहुत खर्च किया होता है और उसे वापस पाने की चाहत भ्रष्ट आचरण को बढ़ाती है। डाक्टर बनने के बाद किसी मरीज को एक तय जांच केंद्र से जांच कराने को विवश करना या व्यर्थ ही जांचें करवाना, अध्यापक द्वारा समय पर न पढ़ाना, कंपनियों द्वारा धनार्जन हेतु घटिया उत्पाद को भी बेच देना, खाद्य में मिलावट करना आदि उदाहरण बताते हैं कि समाज में मनुष्य वेश में राक्षस भी रहते हैं। ये राक्षस क्यों बने? इसके नेपथ्य में भी संस्कारहीन शिक्षा ही है, जो सिर्फ विषय ज्ञान करवाती है, संस्कार नहीं सिखाती।
इसलिए जरूरी है कि मनुष्य को केवल पढ़ाई को सब कुछ नहीं समझना चाहिए। उसे संस्कारों की सीढ़ी पर भी चढ़ना सीखना चाहिए। अगर वह पुलिस अफसर बना छात्र अपने पुराने स्कूल में नहीं भी आता, तो क्या होता? उसने पढ़ाई के साथ संस्कारों के रास्ते को भी चुना था। ये संस्कार खरीदे नहीं जाते, परिवार से मिलते हैं। संस्कार किसी बड़े शिक्षा केंद्र या बाजार में किसी दुकान पर नहीं मिलते हैं। बच्चों को अपने घर की पाठशाला में ही मिलते हैं, जहां उसकी जननी ही प्रथम गुरु होती है।