कुंदन कुमार
किसी भी देश की दिशा-दशा तय करने में युवाओं की महती भूमिका होती है। आज जो छोटे-छोटे बच्चे हैं, अगर उनमें बेहतर निवेश होगा, उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी, तभी वे भविष्य में भारत के आर्थिक विकास में सकारात्मक योगदान दे पाएंगे। दरअसल, बच्चों और महिलाओं के खिलाफ होने वाले शोषण और अत्याचार के विरुद्ध और इनके शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए 1985 में भारत सरकार द्वारा महिला एवं बाल विकास विभाग का गठन किया गया।
2006 में थोड़े परिवर्तन के साथ इसे महिला एवं बाल विकास मंत्रालय नाम दिया गया। बच्चों के विकास और उनके मानवाधिकारों और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए बाल विकास मंत्रालय तत्पर है। फिर भी देश में लाखों ऐसे बच्चे हैं, जिनको सड़कों पर अक्सर बेसहारा अवस्था में देखना आम हो चुका है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत दुनिया का सबसे युवा आबादी वाला देश है। 2011 की जनगणना को आधार माना जाए तो 0-6 आयु वर्ग के बच्चों की जनसंख्या तकरीबन 16 करोड़ 44 लाख है, जो भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 13.60 फीसद है। वहीं 47.20 करोड़ बच्चों की आयु अठारह साल या उससे कम है, जो देश की कुल आबादी का लगभग उनतालीस फीसद है।
भारत में अठारह साल से कम उम्र के कई बच्चे ऐसे हैं, जिनका इस दुनिया में कोई अपना नहीं है। ये बच्चे सड़क के किनारे अपना आशियाना ढूंढ़ते दिख जाते हैं। इन अनाथ बच्चों की मजबूरी का फायदा असामाजिक और अपराधी प्रवृत्ति के लोग अक्सर उठा लेते हैं और इन्हें अपराध की दुनिया में धकेल देते हैं। इससे उनका गरिमा के साथ जीवन जीने का संवैधानिक अधिकार महज खयाल बन रह रहा जाता है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में लगभग तीन करोड़ बच्चे अनाथ हैं, जो कुल युवा आबादी का तकरीबन चार फीसद है। कुल अनाथ बच्चों में सिर्फ 0.3 फीसद ही ऐसे हैं, जिनके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी है। बाकी को उनके माता-पिता ने आर्थिक संकट के चलते त्याग दिया।
अनाथ या परित्यक्त बच्चों की अधिकतर आबादी उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों में है। अनाथ बच्चों के एक छोटे से हिस्से को ही संस्थागत देखभाल में रखा जाता है। बाकी बचे बच्चे अपने भरोसे सड़क पर भटकने के लिए या कहीं बेगारी करने के लिए छोड़ दिए जाते हैं। यह एक सभ्य समाज और जिम्मेदार सरकार के लिए चिंता का सबब है।
आंकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि गोद लेने वाले दंपति कम उम्र के बच्चों को ही गोद लेना चाहते हैं। गोद लेने वाले दंपतियों की इस मानसिकता का खामियाजा उन बच्चों को भुगतना पड़ता है, जो पढ़ने-लिखने की उम्र में परिस्थितिवश अनाथ आश्रम में जीने को मजबूर है। यह भी सच है कि भारत में गोद लेने का कानूनी प्रावधान काफी सख्त है, जिसके चलते भारत में गोद लेने की दर अन्य देशों की अपेक्षा काफी कम है और यही मुख्य वजह है कि अनाथ बच्चों को कोई सहारा नहीं मिल पाता है। गोद लेने के कानूनी प्रावधान को विश्वसनीयता के साथ-साथ लचीला बनाने की आवश्यकता है, ताकि जरूरतमंद दंपतियों आसानी से बच्चा गोद मिल सके।
बहरहाल, कड़वा सच है कि अनाथ बच्चों में से केवल कुछ बच्चों को ही सरकार संस्थागत देखभाल में रख पाती है और जिन बच्चों को सरकारी संस्थाओं के देख-रेख में रखा जाता हैं, उन्हें ही गोद लेने वाले दपंति अपने साथ ले जाते हैं और उन्हें आश्रय मिल पाता है। जिन अनाथ बच्चों पर सरकारी संस्थाओं की नजर नहीं पड़ती है, वैसे बच्चों का जीवन नारकीय हो जाता है।
जररूरत इस बात की है कि सड़कों पर भिक्षाटन करने को मजबूर अनाथ बच्चों को चिह्नित कर सरकारी संरक्षण में लिया जाए, ताकि उन्हें कानूनी रूप से आश्रयदाता मिल सके। इससे वे गरिमा के साथ जीवनयापन कर सकें।अक्सर यह भी देखा जाता है कि गोद लेने वाले दंपति दिव्यांग बच्चों को गोद लेने से बचते हैं। सीआरए द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों से पता चला है कि 2018-2019 के बीच कुल यतीम दिव्यांग बच्चों में से केवल एक फीसद यतीम दिव्यांग बच्चों को ही आश्रयदाता मिल सके।
दिव्यांग बच्चों को साधारण अनाथ बच्चों से ज्यादा प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। साथ ही हमें ऐसी सोच को भी विकसित करना चाहिए जिससे दिव्यांग बच्चों के साथ भेदभाव की प्रवृत्ति खत्म हो। गोद लेने वाले दंपतियों की मानसिकता को सामाजिक जागरूकता के माध्यम से बदला जा सकता है।
दरअसल, 2018 में यह व्यवस्था की गई थी, जिससे ‘लिव इन’ या सहजीवन के संबंधों में रहने वाले दंपति को भी गोद लेने की अनुमति दी गई। निश्चित रूप से यह सराहनीय कदम है, लेकिन हमें सबसे पहले समाज में ऐसा माहौल विकसित करना होगा, जहां सहजीवन वालों को सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त हो सके।