बुढ़ापे की छांव में
जिंदगी एक पहाड़ है। इसके एक-एक पड़ाव एक-एक चोटी हैं। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाएंगे, थकान बढ़ती जाती है।

सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
जिंदगी एक पहाड़ है। इसके एक-एक पड़ाव एक-एक चोटी हैं। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाएंगे, थकान बढ़ती जाती है। शरीर जवाब देने लगता है। उच्च शिखर तक पहुंचने पर बुढ़ापा अपनी धवलता से यह जताने का प्रयास करता है कि इस ऊंचाई से दुनिया तो दिखाई देती है, लेकिन अब दुनिया को आप दिखाई नहीं देंगे। किशोरावस्था की चंचलता में हम दूसरों की परवाह करते हैं कि वे हमारे बारे में क्या सोच रहे हैं। वहीं चालीस के आसपास आते-आते दुनिया हमारे बारे में जो कहे, सो कहे, हमें उससे क्या लेना-देना, कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन बुढ़ापा इसी बात में घुट कर रह जाता है कि कोई हमारी परवाह नहीं करता है।
कोई चाहे या न चाहे, बुढ़ापा बिन चाहे मिलने वाली एक मुराद है। जिंदगी की सभी इच्छाओं को पूर्णविराम लगा कर, थके हुए अनुभवों और रुकी हुई अनुभूतियों को शीतल जल की तरह भेंट कराने वाला प्याऊ है। जिंदगी के इस पड़ाव पर पीछे मुड़ कर देखने की संभावना केवल स्मृतियों में रहती है। बहुत कुछ टटोलने, छूने की कोशिश करते हैं। लेकिन समय जैसा निमोर्ही, निर्लज्ज और निर्दयी कोई नहीं। वह केवल अनुभूतियों की मीठी चुभन देकर तड़पने के लिए छोड़ देता है। बुढ़ापा जिंदगी भर की भागदौड़ पर रोक लगाने की कोशिश करता है। छूटे हुए साथियों के प्रति किए गए वादों का याद करता है। बुढ़ापा जिंदगी की वार्षिक परीक्षा है, जिसका आकलन समाज करता है।
वे वृद्ध जो अपना पूरा जीवन पैसा कमाने और जोड़ने में गंवा देते हैं, अपने परिवार की अपेक्षा बस पैसा बनाने में अपना जीवन खपा देते हैं या व्यर्थ कर देते हैं, हंसना कभी सीखा नहीं, ऐसे यंत्र रूपी व्यक्ति जब निशक्त हो जाते हैं, तब उनके द्वारा परिवार में अभाव, असंतुष्टि के बोए हुए बीज फसल बन कर काटने पर मजबूर करते हैं। फिर उन्हें वही सब परिवार और परिजनों से मिलता है।
इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने जीवन में अपने परिवार को धनार्जन की अपेक्षा अधिक महत्त्व देते हैं, सारा समय प्रसन्न रहते हैं, अपनी कमाई से संतुष्ट रहते हैं, अपने इष्ट मित्रों को पूरा समय और सम्मान देते हैं और अपने शरीर और स्वास्थ्य को व्यापार के बजाय प्रथम स्थान पर रखते हैं, मृत्यु को अटल सत्य मान कर वे बुढ़ापे का भी आनंद लेते हैं।
बुढापे में बचपन पोते-पोतियों, नाती-नातिन के रूप में आता है। उनके साथ खेलने, उन जैसी हरकत करने से बचपन का फिर आगमन-सा लगता है। बुढापे को बचपन में बदलने के लिए बच्चा रूपी खिलौना होना जरूरी है। यही कारण है कि बच्चों से बड़े-बूढ़े को बहुत प्यार होता है। बच्चे बड़े-बुजुर्गों के खिलौने होते हैं। पोते-पोतियों के रूप में जब बच्चे अपना बचपना दिखाते हुए बुढ़ापे से यह कहते हैं कि ‘तुम्हें कुछ नहीं पता’ तो बुढ़ापे को भी अपना बचपन याद आ जाता है। बेटे का पिता के प्रति व्यवहार जवानी का बुढ़ापे से संघर्ष को दशार्ता है।
जिंदगी की कड़वी सच्चाई वाली आग से तप कर जो सोना बनता है, वही बुढ़ापा कहलाता है। जिंदगी भर की कमाई का ब्याज बुढ़ापा होता है। बुढ़ापा प्रेम, क्रोध, ईर्ष्या, भय आदि को शून्य बना कर उसमें भूलने की अपार क्षमता भर देता है। कल तक जिसे पत्नी, बेटा, बेटी, बहू, दामाद, पोता, पोती कहते थे, वही अब धीरे धीरे मस्तिष्क के कमरों को खाली कर दूर होते जाते हैं।
बुढ़ापा वह स्थान है, जहां पर बनने-बिखरने, टूटने-जुड़ने की चिंता नहीं होती। केवल जिंदगी का बोरिया-बिस्तर समेट कर जाने की तैयारी करनी होती है। जाने वाले इंसान को गुस्सा नहीं आता। किसी अपमान की चिंता नहीं सताती। यह वह पड़ाव है, जहां उपलब्धियों से ज्यादा अनुभव का आदर किया जाता है। अगर बुढ़ापे का इच्छाओं पर नियंत्रण है, जीभ पर मिठास है, व्यवहार में कोमलता है, प्रभु के प्रति कृतज्ञता है तो कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं होती।
कितना अच्छा लगता है जब आप किसी से कहते हैं कि ‘हमारे जमाने में’ और फिर अपने जीवन के अनुभव बताने का कारवां शुरू कर देते हैं। इसे ही बुढ़ापा कहते हैं। साथ ही ‘आजकल के छोकरे’ कहते हुए अपनी कमजोर गर्दन की ऐंठन को दिखाने का सुनहरा अवसर कौन गंवाना चाहेगा! जिंदगी की घड़ी से बूंद-बूंद टपक कर जो अंतिम बूंद के रूप में बचता है, वही बुढ़ापा कहलाता है। रीता हुआ घड़ा जिंदगी की विदाई का सूचक होता है। यह वह पड़ाव है जो जिंदगी के कई सवालों का जवाब बन कर उभरता है।
संस्कृत भाषा में ‘ख’ का अर्थ खगोल होता है। व्यवहार में हम ‘ख’ को संसार के रूप में देखते हैं। दो प्रकार की वृत्तियां होती हैं ‘सु’ और ‘दु’। जब ये ‘ख’ से जुड़ती हैं तो सुख या दुख बन जाती हैं। ‘सु’ वृत्तियां हैं दया, दान, क्षमा, इंद्रियों पर नियंत्रण और राग-द्वेष में शिथिलता। इसके बरक्स ‘दु’ वृत्तियां हैं काम, क्रोध, मोह, लोभ और इंद्रियों की प्रबल लालसा। इन दो वृत्तियों का जो ठीक-ठीक पालन करता है, उसका बुढ़ापा निश्चित ही जीते जी परम सुख का पर्याय बन जाता है।