मीनाक्षी सोलंकी
वैर-विरोध, अशांति, उद्वेग, ऊहापोह और नाना प्रकार के उपद्रवों का जाल- खिसकती गाड़ी ने धीरे-धीरे करके पीछे छोड़ना शुरू कर दिया था। विनाश का एक दरिया था, जो उसने पार कर लिया था। कुछ दिन बाद, दिल्ली में राहत और पुनर्वास मंत्रालय के दफ्तर में, जहां सीमा पार कर आने वाले सभी प्रवासियों और शरणार्थियों का रिकार्ड रखा जा रहा था, उसने भी अपना पंजीकरण करा लिया था और तदनुसार उसे भी एक प्रमाण पत्र सौंप दिया गया था।
इतिहास और पुरावस्तुओं का घनिष्ठ संबंध होता है। हमारे सदियों पुराने इतिहास की परतें हमें हर कदम पर घेरे हुए हैं। ऐसे में, किसी भी सभ्यता, समुदाय, जाति आदि का इतिहास प्राप्त करने का पुरातन वस्तुएं एक प्रमुख साधन हैं। कुछ इसी तरह का साधन यह प्रमाण-पत्र भी है, जिस पर एक बर्बरता और लाख बेगुनाहों के इतिहास की कहानी लिखी हुई है। यह घटना अपने ही देश में घटी- 1947 के विभाजन के बाद के दिनों के दौरान। उन दिनों जब न तो पासपोर्ट था और न ही ड्राइविंग लाइसेंस या राशन कार्ड, तब एकमात्र यही कागज, यही ‘शरणार्थी पंजीकरण प्रमाणपत्र’, लाखों बेसहारा लोगों का पहला औपचारिक पहचान पत्र बना।
पड़ोसी देश से भाग कर भारत आए शरणार्थियों को मंत्रालय द्वारा यह प्रमाणपत्र जारी करना, सरकार की ओर से पहली आधिकारिक स्वीकृति थी कि वे अब भारत के नागरिक हैं। इसी के साथ, जिनके पास न तो घर रहा और न ही कुछ और, उन्हें सांत्वना मिली कि कम से कम उनके पास बोलने के लिए अपना एक देश तो रहे!आज भी यह दस्तावेज कई परिवारों ने संभाल कर रखा है। यों वक्त के साथ यह भूरे-पीले रंग में लिपटता जा रहा है।
कागज पर स्याही से लिखे अंग्रेजी के शब्द- रिफ्यूजी, रिलीफ और रिहैबिलिटेशन यानी शरणार्थी, राहत, पुनर्वास भी समय के साथ लुप्त होते जा रहे हैं। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि उस दौर के समाज और आज के समाज में बड़ा अंतर आ चुका है, लेकिन आज भी ये शब्द उतने ही प्रासंगिक, संबंधित और महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। वर्तमान दौर में शरणार्थी संकट अधिक विकराल रूप धारण कर चुका है। आज अनेक देशों में कई देशों के शरणार्थी आश्रय लिए हुए हैं।
हमारे अपने ही देश में पीढ़ियों से शरणार्थियों की समस्या उठती रही है। फिर चाहे 1947 का विभाजन हो, 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान (अब पाकिस्तान) द्वारा पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में जनसंहार हो या तब जब 1990 के दशक में, लाखों कश्मीरी पंडितों को उग्रवादियों द्वारा चलाए गए जनसंहार अभियान ने घाटी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। इसके अलावा, जब चीन ने तिब्बत को अपने अधिकार में कर लिया था, तब भारी संख्या में तिब्बती भारत में शरण लेने पहुंचे थे।
यहां तक कि श्रीलंका में श्रीलंकाई तमिलों पर अत्याचार के दौरान भी भारत ने शरण दी थी और इतना ही नहीं, वर्तमान में भी अपने देश में हजारों की संख्या में अफगान शरणार्थी हैं। इसी प्रकार राष्ट्रीय और वैश्विक, दिनों ही स्तर पर देश अलगाववादी गतिविधियों का शिकार होकर विघटन के बेहद दुखद दौर से गुजरते आ रहे हैं और शरणार्थी संकट के उदाहरण भी दृष्टिगत होते रहे हैं।
इन उदाहरणों से यह साफ है कि आपसी मतभेद से सामाजिक विभाजन इतना अधिक हो जाता है कि अलग-अलग धर्मों और विचारधाराओं को मानने वालों की बस्तियां एक दूसरे से दूर होने लगती हैं। यह अलगाव राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि कारणों से जुड़ कर राष्ट्रों और समूहों के टूटने का कारण बन जाता है। इसी के फलस्वरूप शरणार्थी संकट का जन्म होता है। कई बार बात केवल यहीं समाप्त नहीं होती। जिन्हें शरणार्थी के रूप में मेजबान देश ने शरण दी, वे अपनी जमीन का हिस्सा मांगने लगते हैं। हिस्सा देने के बाद भी उनकी महत्त्वाकांक्षाएं कम नहीं होतीं और एक समय आता है जब मेजबान देश की भी शांति और एकता भंग होने लगती है। इस प्रकार द्वंद्वात्मक संबंधों के कारण समाज एक विचित्र दुश्चक्र में फंस कर रह जाता है।
विडंबना है कि आज मानव समाज ने वैज्ञानिक तौर पर इतनी तरक्की कर ली है कि लोग मंगल ग्रह पर जमीन खरीदने की योजना बना रहे हैं, लेकिन वहीं, विश्व भर में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता और धार्मिक समूहों के बीच आलोड़न देख कर खेद होता है। ऐसा लगता है मानो हमने इतिहास केवल पढ़ा और पढ़ कर भुला दिया। इतिहास से सीखे कुछ भी नहीं!
हर साल की तरह, एक बार फिर हम नए साल में प्रवेश कर चुके हैं। कई लोगों ने बुरी आदतें और अनैतिक कार्य त्यागने की शपथ ली होगी। हमारा सबसे बड़ा शस्त्र, हमारा संकल्प है। दृढ़ संकल्प से ही हमारे क्रियाकलाप और सद््व्यवहार का प्रसारण होगा, जिससे हम देश और दुनिया को व्यापक कल्याण और शांति की ओर बढ़ सकेंगे।