एक दिन मैं मेट्रो में महिला डिब्बे के दरवाजे के पास खड़ी थी कि पीछे से एक लड़की ने अंग्रेजी में मुझसे पूछा- ‘डू यू हेव टू गेट डाउन हियर’! मैं चुपचाप तुरंत एक ओर हट गई। मेरी नजर उस लड़की पर पड़ी। उसने उम्दा पश्चिमी पोशाक पहने हुए थे। मुझे उसके चेहरे की भाव-भंगिमाएं बहुत सकारात्मक लगीं। हालांकि उस डिब्बे में लगभग तीन-चौथाई महिलाओं ने पश्चिमी पोशाक पहन रखा था। लेकिन मेरे लिए यह लड़की अब उस भीड़ का हिस्सा नहीं थी।
दूसरा प्रसंग एक सेमिनार का है। निजी तौर पर मुझे सेमिनार का प्रश्नों और प्रतिक्रियाओं वाला अंतिम भाग पसंद है, क्योंकि इसमें श्रोता भी सक्रिय रूप से भागीदार होते हैं। एक प्रश्न मुझे बहुत विचलित कर रहा था। लेकिन इस बीच कॉलेज में पढ़ रहे एक छात्र ने पूछा- ‘वाइ डू वी कॉपी एजुकेशनल पॉलिसीज फ्रॉम अदर कंट्रीज, वेन आवर कंट्री हैज इट्स ओन कल्चर!’ प्रथम वर्ष के छात्र द्वारा सहजता से बोली गई अंग्रेजी से मैं चकित थी। फिर मैंने इसी में अपने प्रश्न का जवाब ढूंढ़ लिया। इसके बाद कठपुतलियों के प्रयोग की एक कार्यशाला में गई, जहां एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति सरकारी स्कूल में बच्चों से टूटी-फूटी हिंदी में मुश्किल से बोल रहा था। बाकी लोग कठपुतलियों के रुचिकर खेल से ज्यादा उस व्यक्ति के हिंदी भाषा के प्रयोग को देख कर मुस्करा रहे थे। इसमें सहानुभूति भी थी।
ऊपर की तीनों परिस्थितियों में जो बात सामान्य है, वह है भाषा और खासतौर पर अंग्रेजी। आखिर ऐसा क्या था मेट्रो सफर के दौरान मिली उस लड़की में जिसके प्रति मेरा नजरिया अंग्रेजी के कुछ गिने-चुने शब्द सुन कर बदल गया और वह बाकी लड़कियों से मेरी नजर में ‘श्रेष्ठ’ हो गई? सेमिनार में जिन विचारों को मैं चर्चा के दौरान रखना चाहती थी, क्या कारण था कि उस छात्र के अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्न से ही मैंने खुद को संतुष्ट कर लिया, जबकि उसका प्रश्न मेरे मन में चल रही व्यथा से एकदम अपरिचित था!
शायद बहुत सारे लोगों ने इस तरह की परिस्थिति का अनुभव किया होगा, जिसमें अगर कोई हिंदी को कठिनाई से बोले तो उसे हम सकारात्मक दृष्टिकोण से देखते हैं, लेकिन कोई व्यक्ति अंग्रेजी बोलने में कठिनाई महसूस करे तो सभी लोग उसे नकारात्मक भाव से देखते हैं। यह भेदभाव क्यों है? हो सकता है कि सभी को यह बात उतनी महत्त्वपूर्ण न लगे या इस बात की गहराई को समझने के रास्ते में हमारी एक और मानसिकता आड़े आ जाए, जिसमें हम भाषा को कला विषयों के साथ रख कर पूरे कला क्षेत्र को ही विज्ञान-प्रौद्योगिकी क्षेत्रों से कहीं पीछे के स्तर पर धकेल देते हैं।
अन्य देशों में जो वैज्ञानिक क्रांति आई, वह वहां के मजदूरों और कारीगरों द्वारा लाई गई। उन्होंने काम करते समय अपनी जरूरतों के अनुसार कुछ उपकरणों की खोज की। जब इस खोजे गए ज्ञान को संचारित किया गया तो संपूर्ण विश्व में उसे सराहा गया। उन देशों में यह संभव हो सका, क्योंकि वहां के मजदूरों और शिक्षा की भाषा एक ही थी। वहां मजदूर सरलता से अपनी बात को बता सकते थे, पर हमारे देश में एकदम विपरीत परिस्थिति है। यहां कोई किसान या मजदूर ऐसी कोई खोज करता है तो उसे ज्ञान बनाने के लिए एक बड़ी परीक्षा से गुजरना होगा जो है अंग्रेजी भाषा में अपनी बात समझाने की योग्यता।
लेकिन मेरा सवाल उस भीड़ में शामिल लोगों से है, जिनका मनोबल डिग्री बढ़ने के साथ-साथ अंग्रेजी के कारण कम होता जा रहा है। इस भीड़ का हिस्सा मैं खुद भी हूं। मैं यह मानती हूं कि सरकार और संस्थानों का भाषा के प्रति जो दृष्टिकोण है, वह हमें व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता है और हमारे आत्मविश्वास को ध्वस्त करने का बल भी रखता है। पर जिस विद्रोह की बात मैं करना चाहती हूं, उसकी शुरुआत हमें खुद से करनी होगी।
भारतीय दर्शनशास्त्र में हम एक शब्द ‘माया’ का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ एक तरह के बादल से है जो ज्ञान को स्पष्ट रूप से समझने में रुकावट बनता है। मेरा मानना है कि अंग्रेजी का वर्चस्व इस माया की तरह ही है जो हमें अपनी योग्यताओं को स्पष्ट रूप से पहचानने ही नहीं देती। शिक्षित होने के बावजूद हम अंग्रेजी प्रयोग करने के आधार पर ही लोगों के बारे में सकारात्मक या नकारात्मक धारणा बना लेते हैं। न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार हर क्रिया की एक समान प्रतिक्रिया होती है। यानी जब हम दूसरों के बारे में अंग्रेजी बोलने के आधार पर धारणा बनाएंगे तो हमें भी लोगों की धारणाओं का सामना करना होगा। जाहिर है, हमें सबसे पहले अपने अंदर से अंग्रेजी भाषा के डर की इस माया को हटाना होगा। दूसरे, हमें अंग्रेजी के प्रयोग के आधार पर व्यक्ति को किसी खास स्तर पर नहीं रखना चाहिए। जब हम किसी के विचारों को बिना भाषा-प्रयोग के भेदभाव से सुन पाएंगे, तभी उस व्यक्ति की वास्तविक योग्यता से मुखातिब हो सकेंगे।