मीना बुद्धिराजा
सच अपने आप में ऐसा मूल्य है जिसकी जरूरत हमेशा ही रहती है, जिसके बिना समाज और मानवता की कल्पना नहीं की जा सकती। सच के विरोधी और झूठ से परिपूर्ण समय में भी सत्य आखिरकार अपराजित ही सिद्ध होता है। कहा जाता है कि सत्य की नाव तूफानों से डगमगाती जरूर है, लेकिन डूबती नहीं। सच की उपस्थिति ही अपने आप में इतनी पर्याप्त और प्रभावशाली होती है कि उसे किसी प्रदर्शन और दिखावे की जरूरत नहीं होती। सच की गहराई में सभी मानवीय मूल्य समाहित होते हैं, जिन्हें सतही दृश्यों से अनुभव नहीं किया जा सकता।
कोई उद्देश्य या वस्तु अपने अर्थ में इतनी मूल्यवान और सार्थक है तो उसे एक ही प्रयास में नहीं प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि उसके लिए बार-बार कोशिश की जा सकती है। दरअसल, कोई भी महान चीज अपने लिए सर्वस्व और उत्कृष्ट की मांग करती है और उसके रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को पराजय नहीं कहा जा सकता। ऐसे उद्देश्य को पूरा करने में बाधाएं आ सकती हैं, समस्याएं हो सकती हैं और बहुत बार असफलता भी मिल सकती है, लेकिन इन्हें जीवन के अनुभव माना जा सकता है।
सफलता की वह सीमित परिभाषा, जिसमें सब कुछ सकारात्मक परिणाम हों और बिना किसी हानि के सिर्फ लाभ पर ही निर्भर हो, उसे किसी महान उद्देश्य को प्राप्त करने की सफलता का मापदंड नहीं माना जा सकता। प्रत्येक युग और समय में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिन्हें बहुत-सी असफलताओं और निराशाओं से निकलकर ही अपने कार्यों की मंजिल तक पहुंचाने में विजय हासिल हुई।
सच की प्रकृति ही है कि वह बंधनों और संकीर्णता से मुक्त कर देता है, किसी दायरे में बांध कर नहीं रखता। सच व्यक्ति के अस्तित्व को विस्तार देता है अनंत और सीमाओं से आगे, साथ ही नई संभावनाओं की चुनौती को स्वीकार करने की शक्ति भी। मुश्किल और असंभव विकल्पों की तरफ वह खुद उसे प्रेरित करता है। इसलिए इसके रास्ते में मिलने वाले संघर्षों में बहुत कुछ निरर्थक खोकर, क्षणिक स्वार्थों को छोड़कर भी जीवन के सार्थक और स्थायी अर्थ तक पहुंचा जा सकता है। इसे वास्तव में असफलता नहीं, किसी व्यक्ति के जीवन की उपलब्धि कहा जा सकता है। जिस निजी महत्त्वाकांक्षा और झूठे सबंधों को बचाने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़े, उसे बचाना भी व्यर्थ है, क्योंकि आखिरकार जीवन में सच के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।
सच के लिए आत्मिक और गहरा रिश्ता सिर्फ अपनी स्वतंत्र चेतना से रखना चाहिए और इसीलिए जीवन में अपनी भूमिका के चुनाव में संवेदना के साथ ही वैचारिकता से निर्णय करना भी जरूरी है। बहुत-सा बोझ जो दूसरों पर निर्भर रहने का है, उनके दबाव और स्वीकृति के बंधनों का है, उनसे मुक्त होकर ही अपने अस्तित्व की सार्थकता का अनुभव होने लगता है। किसी अनिश्चित के लिए निश्चित रास्ते की सुविधा को छोड़कर ही कोई नई दृष्टि की खोज की जा सकती है, अन्यथा एक निरर्थकता बोध में अपनी चेतना के स्तर पर धीरे-धीरे समाप्त होने लगते हैं।
अपने अनुभवों की आंच से तपने वाले जीवन का प्रभाव हमेशा सहज और स्थायी रहता है, व्यक्ति और समाज दोनों के लिए। सहयोगी और विरोधी परिस्थितियों में बुद्धि का अर्थ उसके माध्यम से दुनिया को समझना नहीं है, बल्कि इस समाज में अपने होने के कारण को विवेक से जानना और अपने लिए भीड़ के अनुकरण से अलग सार्थक विकल्प की खोज के लिए कोशिश करना है। सच के लिए प्रतिबद्ध व्यक्ति के लिए संसार में ऐसा कुछ नहीं होता जो उसकी स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा को बांध सके।
अपने स्वभाव में सच बहुत गहरा होता है, उथला और सतही नहीं, इसलिए उस तक पहुंचना भी आसान नहीं होता। मनुष्य को जीवन के अनेक घात-प्रतिघात, उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए ही कई अनचाहे-अदृश्य रास्तों से निकलना पड़ता है जो उसने निर्धारित नहीं किए होते। लेकिन सबसे मूल्यवान अनुभव यही होते हैं, क्योंकि सुख के लिए दुख से सामना करके ही उसकी सार्थकता का पता लगता है। तब दुनिया के सब लालच सच के महत्त्व के सामने छोटे हो जाते हैं, जिसमें किसी मानसिक गुलामी और आत्मसम्मान से समझौते का प्रश्न नहीं उठता।
जीवन को उसकी संपूर्णता में जीने के लिए यथार्थ में जिस आंतरिक सच की अनुपस्थिति का अनुभव होता है, वह उसको जाने बिना समाज का एक औपचारिक हिस्सा बनकर रहता है, जिसकी कोई सार्थक भूमिका नहीं है। इसलिए समाज के पूर्वनिर्धारित दोहराव से अलग जब व्यक्ति अपनी स्वतंत्र प्रक्रिया को पहचान लेता है, तब यथार्थ और सत्य पूरी तरह उसके सामने उजागर हो सकता है जो परंपरा के बदलाव और विकल्प पर आधारित होता है। इसमें फिर सफलता और असफलता की सामाजिक अपेक्षा के बोझ से मुक्त होकर उसकी अपनी निर्मित जीवन की दृष्टि का दायित्व भी उसे उठाना चाहिए जो सच को केंद्र में रखती है।