सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
इसका समाधान न करने पर न केवल हम दुनिया को खोएंगे, बल्कि प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपना अस्तित्व खतरे में डाल देंगे। देखने में आया है कि पिछले कुछ वर्षों से वातावरण ने बहुत बड़ी करवट ली है। गरमी के दिनों में सर्दी, सर्दी के दिनों में बारिश और बारिश के दिनों में गरमी जैसे मौसम भविष्य के लिए आगाह कर रहे हैं। विश्व का सबसे ऊंचा पर्वत हिमालय अपनी ऊंचाई की तुलना में घटता जा रहा है।
बर्फीले क्षेत्रों में मनुष्य की घुसपैठ ने विलुप्त हो रहे ध्रुवीय भालुओं का जीना दुश्वार कर दिया है। हर पांच में से दो लोगों को पेयजल नहीं मिलता है। आज हम उन पेड़-पौधों को खोने की कगार पर हैं, जिनसे हमारी औषधि संपदा विश्व की रक्षा की कड़ी मानी जाती थी। महासागरों में पानी स्तर बढ़ता जा रहा है। यह सब क्यों हो रहा है? यह सब बिना बाह्य हस्तक्षेप के संभव नहीं है।
केवल अपने स्वार्थ के लिए आज का दोहन करने वालों से कुछ सवाल हैं। मसलन, क्या हम अपने भविष्य की पीढ़ी को प्रदूषण से लिपटी भूमि देने जा रहे हैं? अगर ऐसा है, तो यह सोच तुरंत बदलनी होगी। हमारे पूर्वजों ने हमें स्वच्छ और स्वस्थ ग्रह दिया था, मगर हम क्या कर रहे हैं? हम अपने भविष्य की पीढ़ी को प्रदूषित और बिगड़ी हुई धरती का श्राप देने की कोशिश नहीं तो और क्या कर रहे हैं? जिस तरह पर्यावरणीय खतरे की घंटी बज रही है, उस हिसाब से अब समय आ गया है कि हम कुछ कदम उठाएं। हमें अपनी धरती बचानी होगी। अपने लिए न सही, भविष्य के लिए।
यह काम कौन करेगा, कैसे करेगा और कब करेगा? सच तो यह है कि कोई किसी का काम नहीं करता। सबको अपना काम खुद करना पड़ता है। जब इस धरती के संसाधनों का उपयोग करते हैं, तो हमारा दायित्व बनता है कि हम भी उसकी रक्षा करें। धरती की रक्षा करना हमारा दायित्व है। यह काम हमें ही करना होगा। अभी नहीं करेंगे, तो बहुत देर हो जाएगी।
इसलिए आज हमें चीखती, बिलखती, लाचार धरती की पीड़ा सुननी चाहिए। उसकी भाषा शाब्दिक न सही, क्रियात्मक तो है। तूफान, सूखा, भूस्खलन, बाढ़, तापमान का अचानक से बढ़ जाना आदि क्रियात्मक भाषा के प्रतिरूप हैं। ये सारे संकेत धरती की पीड़ा उजागर करने में कभी पीछे नहीं रहे। आवश्यकता है हमें अपनी सोच बदलने की। भविष्य के लिए मजबूत इरादों की जरूरत है। मजबूत नेतृत्व की जरूरत है। उच्च तकनीकी से लैस समाज बना लेने या देश की आर्थिक संपदा मजबूत कर लेने मात्र से हम अपनी धरती नहीं बचा सकते। कुछ बातें अनसुनी रह जाने से उसका खमियाजा आने वाली पीढ़ी को उठानी पड़ती है।
हर साल पर्यावरण के नाम पर चिंता जताने के लिए जितनी भी बैठकें आयोजित की जाती हैं, उनका औचित्य क्रियान्वयन पर निर्भर करता है। कहने को सभी देश पर्यावरणीय रक्षा के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, मगर जमीनी हकीकत तक आते-आते ढाक के तीन पात रह जाते हैं। दुनियाभर के देश कह तो देते हैं कि हमने पर्यावरणीय मुद्दे पर कई सारी पुस्तकें बनाई हैं, पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया है, उसके लिए फलां-फलां काम किया है। मगर सवाल तब और गहरा जाता है जब इन प्रयासों के बावजूद पर्यावरणीय समस्याएं मुंह बाएं खड़ी रहती हैं। इसलिए कथनी और करनी में जब तक साम्यता नहीं होगी, तब तक मुंह और हाथ अपने दायित्वों से हटते रहेंगे।
हम सभी जानते हैं कि धरती पर सबसे तेज दौड़ने वाला प्राणी चीता है, पानी में मछली का राज्य है और गगन में बाज का। लेकिन मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो धरती, पानी और गगन- सब पर अपना राज समझता है। या यों कहिए हर जगह इसी का हस्तक्षेप है। जब कभी यह हस्तक्षेप अपनी सीमा लांघ देता है, तब पर्यावरण चरमराने लगता है। धरती पर जहां-तहां कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए, रसायन के नाम पर दुनियाभर का कचरा फैला दिया। पानी में पनडुब्बियों के नाम पर न जाने क्या-क्या प्रयोग किए कि जलजीवों का रहना दुश्वार हो गया है। गगन में आए दिन ऐसे यान छोड़े जाते हैं कि नभजीवों का उड़ना उनकी मौत पर बन आया है।
मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है। लेकिन इन आवश्यकताओं का दायरा अब बढ़ता जा रहा है। शिक्षा तो जुड़ ही चुका है और इंटरनेट इस सूची में शामिल होने के लिए मचल रहा है। यहां तक तो सब कुछ ठीक है। समस्या मनुष्य की आवश्यकताओं से नहीं, उसके लालच से है। महात्मा गांधी ने कहा था- ‘धरती सभी की आवश्यकताएं तो पूरी कर सकती है, लेकिन किसी के लालच की नहीं।’ अगर हमें अपने पर्यावरण की रक्षा करनी है तो आवश्यकताओं और लालच के बीच एक लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हम अपने किए पर पछताने के लिए भी शेष नहीं बचेंगे।