मनीष कुमार चौधरी
पिछली सदी के पूर्वार्द्ध में वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि तकनीक इंसान पर भारी पड़ने वाली है। आइंस्टीन ने यह बात उस समय कही थी, जब मोबाइल और इंटरनेट जैसी सुविधाओं के आम इंसान तक पहुंचने में कई दशक बाकी थे। कहते हैं कि पहले तकनीक इंसान की अंगुली पकड़कर चलती है और फिर इंसान तकनीक की अंगुली पकड़कर चलने लगता है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि पिछली पीढ़ियों की तुलना में मौजूदा पीढ़ी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज से सर्वाधिक भाग्यशाली है। अभिव्यक्ति अब बड़े पैमाने पर आम आदमी की पहुंच में है। आभासी दुनिया में आज उसके पास दसियों मंच हैं, जहां वह अपनी बात रख सकता है। लेकिन इन मंचों पर अभिव्यक्ति से जुड़े किंतु-परंतु अपना असर दिखाने लगे हैं।
आभासी दुनिया में अभिव्यक्ति के आनंद से उपजा आत्मविश्वास ‘लाइक-डिसलाइक’ की भूल-भुलैया में खो चुका है। अधिकांश लोग ‘कट-कापी-पेस्ट, फारवर्ड’ और ‘इमोजी’ लगा देने भर को अपनी रचनात्मकता का हिस्सा मानने लगे हैं। इस नकली आत्ममुग्धता ने हमारी भाषा को बहुत क्षति पहुंचाई है। हमारी अभिव्यक्तियां ‘वाउ, नाइस, ओसम, सैड…’ जैसे शब्दों तक सिमटती जा रही है। खयाल बुनने और उन्हें कागज पर उतारकर भेजने की जो कड़ी हमें खास बनाती थी, वह टूट चुकी है। एक समाज के रूप में हम अपनी भाषा खोते जा रहे हैं।
इसने हमारी सोच को इस कदर प्रभावित किया है कि दुनिया-जहान से जुड़े रहने के बावजूद हमारा दिमाग कुछ खास दिशा से आगे सोच नहीं पाता। अधकचरी सूचनाओं और विचारों ने मानसिकता को इतना सतही बना दिया है कि हम कुछ सोचने और दिमाग लगाने की जहमत नहीं उठाना चाहते। अनर्गल अभिव्यक्ति और तुरंत प्रतिक्रिया देने की सोच भी हमारी आदत में शुमार हो गई है। आभासी दुनिया के बाहर की वास्तविकताएं हमें स्वीकार्य नहीं है।
सच कहें तो गूगल ने हमें ‘स्टुपिड’ या बुद्धू बना दिया है। इसने हमारी स्मृति पर हमला कर उसे तगड़ी क्षति पहुंचाई है। लोग अब कुछ भी याद रखना नहीं चाहते। उन्हें पता है कि जो जानना है, वह गूगल कर पल में मालूम कर लेंगे। चूंकि पहले से कुछ भी जानना जरूरी नहीं रह गया है तो सोचना-विचारना और प्रश्न खड़े करना भी छूट गया है। अब तो बने-बनाए प्रश्न हैं और बने-बनाए उत्तर।
आज सूचनाएं भरपूर मात्रा में है, लेकिन उसके विश्लेषण के लिए वक्त किसी के पास नहीं है। त्वरित प्रतिक्रिया देने की जल्दबाजी का आलम यह है कि हम आगा-पीछा भी नहीं सोचते। ज्ञान किसी प्रयोगधर्मी चेतना का नतीजा नहीं रहा, वह एक पेशेवर उद्यम और सोचे-समझे निवेश का नतीजा भर रह गया है। ऐसा ज्ञान नया दिमाग और नया मनुष्य कभी नहीं बना सकता। सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति का यह विराट अवसर हमें प्रगति के बजाय दंभ की राह पर धकेल रहा है।
इंटरनेट पर कुछ भी अतिशीघ्र कहने की आदत ने हमें किसी रफ्तार मशीन-सा बना दिया है। इससे अभिव्यक्ति की अनुभूतिगत सघनता तो नष्ट हो ही रही है, किसी भी तरह की बेतुकी बात, बहस के जरिए भीड़ के केंद्र में खड़े होने की खतरनाक प्रवृत्ति पनप रही है। अभिव्यक्ति के इस लोकतंत्रीकरण में हम अपनी पहचान बनाने के बजाय रही-सही पहचान भी खोते जा रहे हैं। आभासी दुनिया के आभासी रिश्ते इंटरनेट पर एक खाते के पीछे छिप गए हैं। दोस्ती के मानक भी बदल गए हैं। जिगरी दोस्त कभी हुआ करते थे। अब तो दोस्तियां सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर आए ‘लाइक’ और टिप्पणियों से तय होने लगी हैं।
इन मंचों पर हजारों दोस्त होते हैं, पर असल जिंदगी में एक भी ऐसा दोस्त नहीं होता, जिससे दिल की बात साझा की जा सके। अभिव्यक्ति की तड़प भले ही कितनी बलवती क्यों न हो, आत्ममुग्धता और वास्तविकता के बीच एक महीन सीमा रेखा भी है। सोशल मीडिया पर कुछ भी कहने-बताने में संयम रखना होता है। इस दुनिया के अपने सिद्धांत, अपनी नियंत्रण प्रणाली है। इन कंपनियों ने ऐसा ‘अल्गोरिदम’ तैयार कराया है और ‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता का इस तरह से इस्तेमाल किया है कि उनकी मशीन एक ही समय में करोड़ों लोगों की पोस्ट पर नजर रख सकती है।
यहां तक कि उनका विश्लेषण और उनकी निगरानी होने लगी है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कोई व्यक्ति किस तरह के सामाजिक और राजनीतिक रुझान वाला है, उसकी पसंद क्या है, कमजोरी क्या है और उसे कैसे प्रभावित किया जा सकता है। ये मंच तैयार ही इस तरह किए जाते हैं कि अभिव्यक्ति के लालच पर लगाम नहीं रह सके और हम अपनी उथली भावनाओं को कुछ इस तरह व्यक्त करें कि इन मंचों को लोकप्रियता हासिल हो, जिससे वे अपने व्यावसायिक हितों को साध सकें। कुछ भी कहने-बताने-दिखाने से पहले यह याद रखना चाहिए कि आभासी संसार में सब कुछ पारदर्शी नहीं होता। अभिव्यक्ति की मुखरता पर आत्ममुग्धता का जो नकली चोगा लपेटा गया है, उसके पैबंदों को पहचानने की जरूरत है, अन्यथा आभासी दुनिया में दुनियादार दिखने के फेर में हम असल दुनिया से दूर होते चले जाएंगे।