स्वरांगी साने
उम्र बढ़ने का अर्थ केवल जीवन के वर्ष बढ़ना नहीं होता, बल्कि इस समझ का आना भी होता है कि हमें वही करना चाहिए, जो हम करना चाहते हैं और अपने जीवन के उच्चतम लक्ष्यों को पाना है। अपने मस्तिष्क की उन सारी उलझनों को उतार फेंकना है, जो यह कहती हों कि आपको इससे अलग कुछ करना चाहिए। मतलब, पढ़ाई के दौरान टीवी देखने का मोह अपने उच्चतम लक्ष्य से दूर ले जा सकता है।
छोटी उम्र में बच्चों के सिर पर कोई और खड़ा होकर छड़ी लेकर बता देगा कि पढ़ाई कर लो, लेकिन उम्र बढ़ने पर यह समझ किसी के भीतर खुद आनी ही चाहिए। हम जब जान लेंगे कि क्या करना हमारे लिए सही है, तो हम शांत हो जाएंगे और अपने पथ से फिर कोई हमें डिगा नहीं पाएगा।
काम और उस काम के प्रति निष्ठा ही सर्वोच्च लक्ष्य तक ले जा सकती है, कुछ और नहीं। लक्ष्य यही होना चाहिए, जो अभी करना है। पढ़ाई के समय पढ़ाई के अलावा कोई विकल्प नहीं हो सकता। अपना लक्ष्य पहचानना ही होगा। धीमे ही सही, लेकिन अपने लक्ष्य की ओर लगातार बढ़ते और अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों को उसी तरह से करते रहना चाहिए। देखा जाए तो पढ़ाई के दौरान किसी और बड़े बदलाव की जरूरत नहीं होती।
हम उस वक्त पार्टी या मनोरंजन के बारे में नहीं सोच सकते और अगर जीवन के लक्ष्य बहुत बड़े हों तो जीवन भर मनोरंजन के बारे में नहीं सोच सकते हैं। अगर किसी भी समय ऐसा लगता है कि कुछ और करना चाहिए तो तुरंत आत्मपरीक्षण करना चाहिए। कर्तव्य और मोह के तराजू में कर्तव्य का पलड़ा हमेशा भारी होना चाहिए।
हमेशा धीमी गति से, लेकिन लगातार काम करने वाला ही जीतता है। भौतिक और बाहरी जगत में सजग होकर व्यवहार करना चाहिए। यह सजगता सेहत के रूप में परिलक्षित होती है। अगर हमारा स्वास्थ्य, वित्त, कार्य और रचनात्मकता अच्छी है तो हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं। बाहरी जगत उस पर निर्भर करता है कि हम उसका निर्माण किस तरह से कर रहे हैं, कैसे उसे आकार दे रहे हैं और उसे अपने अनुरूप करते हुए कैसे अपना विकास कर रहे हैं। दृढ़ निश्चय करते हुए सही दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। जो करना उचित हो, उसे अवश्य करना चाहिए।
विभिन्न दिशाओं की ओर झुकते अपने रुझानों को संतुलित करना बहुत जरूरी है। भावनात्मक ऊर्जाओं को परिवर्तित करने की जरूरत है, ताकि वे सकारात्मकता की ओर ले जाएं। कठोर परिश्रम और कर्मठता का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता है। अपनी आंतरिक जागरूकता को बढ़ाना और मिलने वाले मार्गदर्शन को समझना चाहिए। अगर सारे कार्य करने के बाद भी समय बचता है तो उसे दूसरों की सेवा करने में बिताना बेहतर है। परमार्थ ही चलायमान रखेगा, ऊर्जावान बनाए रखेगा।
हम जानते हैं कि जो विश्व में है, वहीं अणु में और जो अणु-रेणु में वही विश्व में, तो हम सूर्य की तरह प्रदीप्त क्यों नहीं हो सकते? क्यों न हम तय कर लें कि सूर्य की तरह चमकेंगे, दमकेंगे और हर अंधेरे में उजास भरेंगे। सफलता, दीप्ति, आभा और सकारात्मकता ही जीवन के उद्देश्य होने चाहिए, जैसे सूर्य के हैं। सूर्य बनने का अर्थ ही तिमिर में से उठना और ऊर्जावान होना, दूसरों को ऊर्जा देना है।
सूर्य-सी ऊष्मा, प्रकाश और आनंद हम सबमें है, बस हमें अपनी आंखें खोलने की देरी है। जीवन को अति गंभीरता से जीने के बजाय थोड़ा हंसते-खिलखिलाते जी लिया जाए। थोड़ा साहस किया जा सकता है। अपने भीतर के उस आनंद को खोजना चाहिए, जो हममें तब था, जब हम बच्चे थे। हमारे भीतर वह बच्चा आज भी बाहर की दुनिया को बड़े कौतूहल से देखना चाहता है।
विश्व के प्रकाशवान पुंज के रूप में चमकने का इससे बेहतर और कोई मौका नहीं हो सकता। अब तक के जीवन में हमने जो कुछ भी संघर्ष किया, जो भी जिया, जैसे भी जिया, वह बीत गया। ‘बीत गई सो बात गई’, ‘बीती ताहि बिसार दे’ को अपना लेना चाहिए। नया सवेरा नई उम्मीद लेकर आता है। उसका स्वागत करना बेहतर है। जब हम नवनिर्माण करने की ठान लेते हैं तो हमारी जीत सुनिश्चित होती है।
सूर्य सबसे अधिक सकारात्मक और सफल जीवन तत्त्व को दर्शाता है। बस हमें तय करना है कि कब और कहां चमकना है। परछाइयों के पीछे दौड़ने के बजाय सूर्य की तरह चमकना सीख लेना चाहिए। यह तय करना ही श्रेयस्कर है कि हमको अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा कहां और किस पर खर्च करनी है। विवेक से काम लेते हुए अपने समय को व्यर्थ बर्बाद करते रहने के बजाय परमार्थ और परमानंद में उसे व्यतीत करना चाहिए।
घनघोर अंधेरा होने पर भी सूरज चमकना नहीं छोड़ता, पूर्णिमा की रात हो या अमावस की, दूसरे दिन सूर्य उसी उत्साह से निर्धारित कालखंड में आ ही जाता है। वह आलस नहीं करता। रात के अंधेरे में जो छिपा होता है, वह दिन के उजाले में मिल जाता है। भोर हो गई है, अपने जीवन के लक्ष्य को पहचान कर चल पड़ना चाहिए सुबह की सैर पर, जीवन की यात्रा पर फिर एक बार।