कृष्ण कुमार रत्तू
इसी धरती की रफ्तार से बदलते हुए मौसम हमारी सांस्कृतिक धरोहर और आदमी के आगे बढ़ने की नई ऊर्जा के नई दिशा चक्कर को निर्धारित करते हैं। इस साल की सर्दी के इस मौसम में धुंध का जैसा वातावरण दिखा और राजस्थान से लेकर सभी जगह पर्वतीय स्थलों से भी ज्यादा शीतलहर की चपेट में आए।
माउंट आबू जैसे स्थान जमी बर्फ-सी हुई झील से डल झील का मुकाबला करती दिखी। यों यह मौसम का यह एक सामान्य स्वभाव है, मगर इसकी दूसरा पक्ष यह भी है कि इस धुंध के कारण होने वाले हादसे जानलेवा साबित हो रहे हैं।
शायद यही जीवन चक्र है। ऋतुओं के बदलने और बदलते मौसम में इस धुंध की धुंधली चादर में जब सूर्य कई दिनों से दिखाई भी नहीं देता, तब सर्दी के सितम से पूरा समाज थरथराता रहता है बदलते हुए समाज की प्राथमिकताओं के साथ। धुंध या कोहरे का मौसम सर्दी में एक नजराना बनकर और खूबसूरत विविधताओं की रफ्तार को देर रात पार्टियों में बांधता है, लेकिन महानगरीय जिंदगी के एक खास हिस्से में।
दूसरी ओर इसी के समांतर सड़क के किनारे झोपड़ी और किसानों का दुख-दर्द भी सामने दिखता है। भारत के आम आदमी की गांव की तस्वीर भी दिखती है, जो इस धुंध में उलझी होती है।
यह एक सफर है, जो चलता रहता है। इसी का नाम ही जिंदगी है। शायद ही किसी ने यह कहा होगा कि धुंध कोई अजनबी चीज है। इस मौसम में जब चेहरे पर ओस की बूंदें धुंध के रुई की तरह के लिहाफ से किसी को यादों से जोड़ती हैं तो जिंदगी का एक नया नजराना और पन्ना दिखाई देता है।
यही शायद धुंध का वह सौंदर्यबोध है, जिसमें हम इससे आनंदित होकर अपने अंतर्मन को एक नई दृष्टि से देख सकते हैं और यही वह ऊर्जा का समय है, जब ऋतु का आनंद लिया जा सकता है। बदलते हुए मौसम में जब धुंध का सौंदर्यबोध ध्यान में आता है तो हम गुजरे हुए लम्हों में धुंध की तरह उड़ते हुए बादलों के खयालों के कोहरे में टहलने लगते हैं और हमारी जिंदगी का हर लम्हा ताजगी से भर जाता है।
जिंदगी के इस सौंदर्यबोध की परिभाषा दूसरी तरह से भी है। जब हम बाजार के असर में उपभोक्ता और नई तकनीक के जरिए जीवन के स्वर और रंगों को बदल रहे हैं, तब एक आभासी दुनिया इस धुंध की दुनिया पर भारी होने लगती है। कई बार लगता है कि जिन लम्हों में उम्र गुजर गई, उसके बरक्स अक्सर एक लम्हा भी नहीं गुजरता।
उसे इंतजार कहा जाता है और यही वे पल होते हैं जब हम मौसम के सौंदर्यबोध को देखते और महसूस करते हैं। यह सौंदर्यबोध हमें जीने का तजुर्बा देता है और यह वक्त के हर मोड़ पर दर्ज होता रहता है।
सर्दी में सेहत का खयाल रखना एक अतिरिक्त काम हो जाता है, लेकिन आयुर्वेदिक प्रणाली से लेकर कितनी तरह की चीजें इंसान को स्वस्थ रखने के लिए होती हैं, जो सिर्फ सर्दी में और खासतौर पर धुंध के दिनों में ली जा सकती हैं। यही प्रकृति का कमाल है।
अगर चला जाए तो प्रकृति के इस संगीत को और प्रकृति के इस दुर्लभ लम्हों को जिंदगी अपने साथ कर लेना चाहती है, जहां पुरानी यादें नए के संतुलन बिठाने की कोशिश करती हैं। यह एक तरह से हमें नई ऊर्जा से भर दे सकता है।
इसलिए सर्दी के सितम को भी हंसी-खुशी से मौसम का हिस्सा मानना चाहिए, क्योंकि इससे प्रकृति का संतुलन कायम रहता है। इस हकीकत के साथ कोशिश यह होनी चाहिए कि नई सुबह के इंतजार में छाई धुंध मे गुम होकर अपने काम को भी जिंदा रखा जाए। मौसमों के इस सौंदर्यबोध को देखते हुए धुंध में लीन हो जाया जाए।
इसी सब के बीच में जीने का रास्ता निकाल कर एक नए समाज के निर्माण के लिए नई शुरुआत में अपनी भूमिका निभानी होगी। मगर हमारी दुनिया की दिक्कत यह है कि हमने घर, गांव, जंगल, जमीन- इन सबसे मिलकर उस छोटे-से स्क्रीन पर अपनी दुनिया बसा ली है, जिसमें जीने का नाटक है, जिसमें वह वास्तविक जीवन नहीं है, जिसमें चेहरों की रौनक नहीं है।
जाहिर है, इस सर्दी के धुंध के सौंदर्य ने यही बताया कि हम संवाद से एक-दूसरे को चेहरों को पढ़ सकें। शायद खुशियों और रिश्तों की तलाश में यह भी ठीक है। किसी ने कहा है- ‘इसी धुंध में आना है और इसी धुंध में जाना है।’
इसी धुंध के सौंदर्य बोध को नई ऊर्जा में परिवर्तित करते हुए मन-मस्तिष्क में अपनी अंतरदृष्टि को नए सुरों के साथ आने वाले कल के लिए हम इंतजार करना होगा। धूप में बैठकर एक बार फिर से अपनी स्मृतियों के साथ धुंध का आकलन करना होगा।