पवन कुमार शर्मा
ग्रामीण परिवारों की अर्थव्यवस्था भारत के सर्वांगीण विकास की आधारशिला है, जो मुख्य रूप से कृषि आधारित ही रही है। सामान्यतया दो फसलों उन्हालू और स्यालू में पैदा हुए अनाज की बिकवाली से घर में सभी के लिए कपड़ा, दवा, पढ़ाई खर्च और शादी विवाह संपन्न होते थे। हमउम्र लोगों के कपड़े बहुधा एक ही थान के कपड़े से दर्जी के यहां सिलवाए जाते थे।
इससे परिवारों में बराबरी या समानता न केवल दिखती थी, बल्कि महसूस भी की जाती थी। अगर किसी परिवार में परिवार के एक या दो सदस्यों की नौकरी लग गई तो अपने ही परिवार में उनकी आर्थिक हालत बदलने के कारण उनका सामाजिक स्तरीकरण बदल जाता था। ऐसे नौकरीपेशा लोगों ने अपने और बच्चों के लिए एक ही थान के वस्त्र सिलवाने की जगह बाजार से सिले-सिलाए वस्त्र खरीदने शुरू कर दिए जो धीरे-धीरे ब्रांडेड परिधान अपनाने लगे।
स्वाभाविक ही अर्थव्यवस्था का केंद्रीकरण शहरों की ओर होता गया और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी बढ़ने से निर्धनता आई। समाज के कमजोर वर्गों का जीवन स्तर बदतर होता गया। उत्पादक-रोजगार के अवसर कम हो गए। साक्षरता विशेषकर स्त्री साक्षरता और कौशल का विकास नहीं हो पाया।
अवसरों का अभाव और बेरोजगारी में वृद्धि आदि के कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में बाधाएं आनी शुरू हो गई। धीरे-धीरे हमारी कृषक अर्थव्यवस्था मात्र औपचारिक अर्थव्यवस्था ही बनकर रह गई। फसल खराब होने, अपर्याप्त आय और वैकल्पिक रोजगार का सहारा न होने, ऋण न चुका पाने की स्थिति में बहुत सारे किसान अपने जीवन को ही समाप्त करने लगे।
सामाजिक स्तरीकरण के इस बदलाव में नामी-गिरामी कंपनियों ने अप्रत्यक्ष और कहीं-कहीं प्रत्यक्ष रूप से नकारात्मक भूमिका ही निभाई थी। इनकी इस भूमिका को हम आज भी अपने कृषक या अन्य समाजों में देख सकते हैं। एक समय आम रहे वस्त्र और पहनावे की तरह के कपड़ों को मशहूर कंपनियों का मुहर लगा कर लागत से कई गुणा ज्यादा मूल्य पर बेचा जाता है।
इस पूरी प्रक्रिया में ऐसे कपड़े के खरीदार का तो शोषण होता ही है, इससे गांव में कपड़े की सिलाई कर स्व-रोजगार में लगा दर्जी वर्ग बेरोजगार हुआ। इससे बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की असाधारण कमाई बढ़ी और देश का धन अन्य देशों में जाने लगा। यह प्रक्रिया गांव आधारित सामाजिक-आर्थिक ढांचे को तहस-नहस करने में मुख्य भूमिका अदा करती है।
जब कपड़ा, फर्नीचर, भवन-निर्माण, वैवाहिक कार्यक्रम आदि मामलों में ग्रामीण स्वावलंबन था, तो उसको अवसान पर लाने में रेडीमेड या तैयार और ब्रांडेड उत्पादों ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नई व्यवस्था का आधार खरीदार, मजदूर, उपभोक्ता सभी के शोषण पर खड़ा है। इसमें केवल बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी को अन्य सभी हितधारकों की कीमत पर असाधारण लाभ होता है। देखा जाए तो ये स्थितियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ही पैदा की हैं। भौतिकता आधारित संरचनाओं का प्रभाव कृषक प्रणाली पर पड़कर ग्रामीण अंचलों के सामाजिक तथा आर्थिक परिदृश्य को निरंतर नुकसान पहुंचा रही हैं।
वैश्वीकरण के इस दौर में कृषि का व्यावसायीकरण होना चाहिए, लेकिन कृषक अर्थव्यवस्था ग्रामीण परिवारों को बिना नुकसान पहुंचाए। इस दिशा में हमें प्राकृतिक कृषि पर बल देना होगा। किसानों की आमदनी अच्छी करनी होगी। घरेलू उत्पादों जैसे मत्स्य पालन, भेड़-पालन, मुर्गी-पालन, गुड़-निर्माण, मधुमक्खी पालन कृषि के बीजों की उत्तम व्यवस्था कम लागत पर रखने होंगे, ताकि किसानों को अधिक मुनाफा मिल सके। छोटे-छोटे स्वरोजगारों को अधिक बढ़ावा देना होगा। पश्चिम बंगाल, केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में ग्रामीण परिवारों की अर्थव्यवस्था घरेलू उत्पादों पर ही टिकी है।
मगर यहां के किसान वैश्वीकरण के इस दौर में भूमिहीन श्रमिकों के रूप में बदलने को मजबूर होते जा रहे हैं। खाद्य असुरक्षा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गिरावट इनकी मुख्य समस्या बनती जा रही है। कृषक बाजार ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संदर्भ में क्षतिग्रस्त होते जा रहे हैं। परिवार पहले उत्पादन का केंद्र होता था। एक ही परिवार के सदस्य विभिन्न प्रकार के कार्य किया करते थे, जैसे-कोई खपच्ची से खांची (डलिया) बनाता था तो कोई सूत कातता था। इसके अतिरिक्त बहुत से परिवार कुटीर-उद्योग धंधों को कृषि के अतिरिक्त खाली समय में किया करते थे। अब ग्रामीण परिवार उत्पादन का केंद्र नहीं रह गए हैं।
यहां अब समुचित अर्थव्यवस्था की संकल्पना दिखाई नहीं देती है। अधिकतर लोग संकटकाल की स्थिति में जीवन-यापन कर रहे हैं। वे केवल जी रहे हैं, समुचित जीवन नहीं जी रहे हैं।
दरअसल, ग्रामीण इलाकों में शहरी अर्थव्यवस्था बढ़ी है, जिसके कारण रोजी-रोटी के अवसर बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था के अंतर्संबंधों ने कई दूसरे व्यवसायों को जन्म दिया है। ग्रामीण परिवारों की अर्थव्यवस्था का सर्वांगीण विकास खेतिहर वस्तुओं और औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में सामंजस्य बैठाकर ही किया जा सकता है।