भावना मासीवाल
इन दिनों पहाड़ को करीब से देख और जी रही हूं। पहाड़ हमेशा से मेरे भीतर पहाड़ीपन के साथ मौजूद था। लेकिन मैदान में पहाड़ कितना ही पहाड़ीपन क्यों न दिखा ले, कहलाता तब भी मैदानी ही है। दरअसल, पहाड़ पर कुछ कहना और बोलना आसान होता है, मगर वहीं उसे ठीक उसी तरह जीना जरा मुश्किल होता है। पहाड़ के आकर्षण से मुग्ध लोग जब पर्यटक के रूप में घूमने आते हैं, तो बेशक अपने भीतर पहाड़ के चमत्कार को बसा कर लौटते हैं। पहाड़ का जो जीवन होता है, उसे कुछ वक्त तक तो आनंद के लिए जिया जा सकता है, लेकिन उसके साथ होने का साहस जुटाना एक बड़ा काम है। इस चुनौती को स्थानीय लोग शिद्दत से महसूस करते हैं। यही वजह है कि यहां से शहरों की ओर पलायन बढ़ा, प्रदूषण बढ़ा और जल संकट उभरा।
यह सब हकीकत की शक्ल में हमारे सामने था, फिर भी हमने पलायन की मूल वजहों और समस्याओं को दूर करने का प्रयास नहीं किया। हमने आगे बढ़ने वाले शहरों को अत्याधुनिक बनाया और जो पिछड़ा था, उसे उसकेहाल पर छोड़ दिया। बात यहीं नहीं रुकी, अत्याधुनिक होने की इस रफ्तार में जो पिछड़ गए थे, उनसे उनके मूल संसाधनों को भी छीन लिया गया। पिछले कुछ दशकों के दौरान पर्यावरण में बदलाव और उससे उत्पन्न जल, जंगल और जमीन का सवाल पूरे विश्व में केंद्रीय समस्या बन कर उभर रही है। कहीं जंगल जल रहे हैं तो कहीं जंगली जानवरों के आतंक से खेती-बाड़ी पूरी तरह नष्ट हो गई है। नदियों के रास्तों पर विकास का पत्थर आ लगा है, जिसने न केवल उनकी धारा को मोड़ा है, बल्कि उसे नदी से नाला बन जाने और फिर सूख कर खत्म होने की कगार चले जाने पर मजबूर कर दिया है। अब तो हालत यह है कि न जंगल के बच पाने की गुंजाइश लग रही है, न जल के। हर कोई आस्था से सिर उठाए एक अनिश्चित की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखता है कि अब शायद कुछ चमत्कार हो जाए और जंगल और जल की समस्या का समाधान हो जाए।
पहाड़ों में पैसा हमें जल नहीं दे सकता है, न ही वह जंगलों को फिर से जीवित कर सकता है। इस वजह से पहाड़ का श्रम हर दिन एक नई चुनौती के साथ बढ़ रहा है। जो पहाड़ पर रह भी रहे हैं, वे रहने से अधिक मूल जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं या अंत में थक कर शहरों की ओर उम्मीद की नजरों से देख रहे हैं। मगर दूसरी ओर शहर अपनी धुन में खोया हुआ दौड़ रहा है। उसके आसपास क्या घट रहा है, इस सबसे अनजान है शहर। इसीलिए कभी खबरों में पहाड़ की समस्याओं को न देखा जाता है, न सुना जाता है। यह गुमनामी तब तक चलती रहती है, जब तक कि छोटी घटनाएं बड़ी आपदाएं नहीं बन जाती हैं।
आपदाओं के बारे में कहें तो पहाड़ का हर दिन कभी छोटी तो कभी बड़ी आपदा का हिस्सा बना रहता है। यहां तो कभी न खत्म होने वाली आपदाओं के हजारों किस्से हैं। बचपन में जैसे दादा-दादी, नाना-नानी से उनकी कहानियां या किस्से सुना करते थे, वही किस्से पहाड़ पर आपदाओं के हैं। कह सकते हैं कि पहाड़ का व्यक्ति बचपन से ही संघर्षशील होता है, आंदोलन को जीता है। पैदा होने के साथ डॉक्टरी सुविधाओं के अभाव के बीच का संघर्ष। वह नहीं मिला तो फिर जीवित रहने का संघर्ष। थोड़े बड़े हुए तो बेहतर शिक्षा का संघर्ष और युवा होने के साथ ही रोजगार का संघर्ष तो हर मनुष्य करता है, लेकिन यहां यह अधिक बढ़ जाता है।
दरअसल, हर पहाड़ दूसरे पहाड़ से दूरी बनाए हुए है। यह दूरी व्यक्तिगत से अधिक भौगोलिक है, जिस पर पूरे पहाड़ की संरचना निर्भर है। यह संरचना सड़कों से पाटी जा रही है। गांवों में कहा जाता है कि सड़क विकास लाती है और यह धारणा बहुत हद तक सही भी है। पहाड़ में भी एक कोने से दूसरे कोने तक छितराए गांवों को सड़क ने ही जोड़ा है और बुनियादी सुविधाओं तक उसकी पहुंच को बढ़ाया है। मगर ये सुविधाएं भी पहाड़ की बुनियादी जरूरत खेती-किसानी, जल-जंगल और जंगलों में लगातार बढ़ती आग और उनके कटने से ग्रामीण परिवेश में जानवरों के आतंक से उन्हें मुक्त करने में असमर्थ हैं। आज का ग्रामीण युवा इन सबसे जूझता हुआ एक ओर समाधान तलाश रहा है तो दूसरी ओर पलायन के रास्तों को अख्तियार कर रहा है।
पहाड़ के संघर्षों की अपनी एक ऊर्जा है। यह ऊर्जा दैनिक जीवन जीने के संघर्षों में ही समाप्त हो रही है। इस ऊर्जा को एक नई राह की जरूरत है। इसमें बहुत कुछ नया करने का जोश है। इसे नहीं पता कि अनुसंधान क्या होता है! लेकिन इसे पता है कि कैसे अपने आसपास के संसाधनों के माध्यम से दैनिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है! पहाड़ की इसी सोच ने यहां इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज को आधार दिया। पेड़ों को बचाने से लेकर संरक्षण तक, प्राथमिक शिक्षा से लेकर डिग्री कॉलेज तक की नींव में पहाड़ का सकारात्मक और संघर्षजीवी व्यक्तित्व है। आज जो पहाड़ हमारे सामने है, वह उसके संघर्षों में जीने वाले व्यक्तित्व का परिणाम है।