भावना मासीवाल
विडंबना यह है कि हममें से अधिकतर लोग इसे स्वास्थ्य का हिस्सा ही नहीं मानते हैं। इस भागदौड़ और चकाचौंध की आधुनिक दुनिया में हर व्यक्ति समस्या और डर से घिरा हुआ है। उसकी कुछ समस्याएं तो शारीरिक स्वास्थ्य का हिस्सा बनकर इलाज के जरिए ठीक हो जाती हैं, मगर कुछ उसके भीतर ही भीतर मानसिक विकार का रूप लेकर अचेतन में जड़ बना लेती हैं। मनुष्य का यही अचेतन मन कुछ परिस्थितियों में व्यक्ति पर हावी हो जाता है और मानसिक द्वंद्व का कारण बन जाता है। यह द्वंद्व कभी-कभी मनुष्य का अपने प्रति हिंसात्मक व्यवहार के रूप में उभरता है तो कभी दूसरे मनुष्य के प्रति।
दरअसल, हमारा समाज मानसिक स्वास्थ्य के प्रति अभी सजग नहीं है। यही कारण है कि हमारे आसपास काम करने वाले व्यक्ति से लेकर सड़क पर चलने वाला हर दूसरा व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है और हम उनकी पहचान नहीं कर पाते हैं। हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य को नकारात्मक भाव से और कई बार पागलपन के रूप में देखा और समझा जाता है।
इसीलिए व्यक्ति खुद और उसका परिवार भी नहीं समझ पाता है कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है और उसे इलाज की आवश्यकता है। जबकि यह स्थिति अति संवेदनाओं, भावनाओं और अतृप्त इच्छाओं का मानसिक विकारों के रूप में हावी होना है, जो मनुष्य को हत्या और आत्महत्या तक की स्थितियों में ला खड़ा करता है और हम सोचते रहते हैं कि एक सामान्य दिखने वाले व्यक्ति ने आत्महत्या या हत्या तक कैसे पहुंच गया! ये स्थितियां संवेदनाओं के मानसिक असंतुलन से उत्पन्न होती हैं। मानसिक असंतुलन की स्थितियां संवादहीनता के कारण और अधिक बढ़ रही हैं।
हमें बेहतर और अधिक बेहतर दिखने की प्रतिस्पर्धा ने आत्मकेंद्रित बना दिया है।
आत्मकेंद्रित होने की इस प्रवृत्ति के कारण मनुष्य अपने आसपास एक दिखावटी दुनिया का निर्माण कर लेता है और दो चेहरों के साथ जीना शुरू कर देता है। एक, जिसे परिवार और समाज देख रहा है, दूसरा, उसका अपने आपसे जूझता भीतरी मन। जीवन में बदलते संघर्षों के मायनों ने भी मनुष्य के संघर्षरत जीवन को बदल दिया है। पहले बहुत अधिक न भी सही तो एक उम्र तक बच्चा स्वतंत्र और तनावमुक्त जीवन जीता था, उस पर सामाजिक, शैक्षिक और पारिवारिक दबाव कम हुआ करता था। या कह सकते हैं कि वह परिवार बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य का खयाल रखता था कि बच्चा विषम परिस्थितियों, असफलता की स्थितियों में परिवार के सहयोग से अपने आप को मानसिक दबाव से मुक्त कर लेता था।
वर्तमान में सामान्य स्थितियां, संबंध, परिवार का ढांचा और मनुष्य बदल गया है। सामाजिक, आर्थिक दबाव ने बच्चों के पैदा होने के साथ ही उसमें अच्छा, बहुत अच्छा और सबसे अच्छा होने का भाव भर दिया है। वह इस भाव को ताउम्र अपने साथ लिए जीता है और अपनी आगे की पीढ़ी को हस्तांतरित करता है। हम मानसिक दबावों से भरे ऐसे समाज में पैदा हो रहे हैं, जहां हमारे आसपास अथाह तनावों और दबावों के घेरे हैं।
बचपन से परिवार और समाज इन घेरों में प्रवेश लेने की शिक्षा तो देता है, लेकिन वह इन घेरों से बाहर निकलने की शिक्षा देना भूल जाता है। वह सफलता कैसे प्राप्त करे, यह शिक्षा अवश्य देता है, लेकिन असफलता में कैसे खुद को मानसिक रूप से मजबूत बनाए, यह नहीं सिखाता है। आज हमारे आसपास का प्रत्येक व्यक्ति मानसिक द्वंद्व से जूझता, कभी खुद से लड़ता तो कभी दूसरों से झगड़ता देखा जा सकता है। इन्हें इलाज यानी परामर्श या काउंसलिंग और सबसे अधिक संवाद की आवश्यकता है।
आज संवादहीनता और अपनी मानसिक स्थितियों से किसी को परिचित न करा सकने की मानसिकता ही सबसे अधिक मानसिक स्वास्थ्य की समस्या को जन्म दे रही है। हम जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति सजग है और समय-समय पर उसका निरीक्षण और परीक्षण करवाते रहते हैं, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य का भी करवाना चाहिए। शायद पश्चिमी देशों ने इस समस्या को समझा है। यही कारण है कि उन देशों में ज्यादातर लोग समस्या के वक्त काउंसलर के संपर्क में होते हैं।
मगर भारत में अभी भी मानसिक स्वास्थ्य को समस्या के रूप में देखने की मानसिकता का ही अभाव देखने को मिलता है। आज युवाओं में रोजगार की चिंता ने उनको अपने परिवार से दूर कर दिया है। अकेलापन, प्रतिस्पर्धा और असफलता का डर उनके जीवन का संत्रास बनता जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि नौकरीपेशा लोगों को अपने परिवार के साथ समय व्यतीत करने का उचित समय दिया जाए, जिससे वह अपने मानसिक द्वंद्व को अपनों से साथ साझा कर अपने मन में जन्म लेती नकारात्मक वृति का शमन कर अपने ऊपर नकारात्मकता को हावी होने से बचा सके।