सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
शांति सुखदायक है और अशांति दुखवर्द्धक। इसलिए शांति वह मूल्य है, जो हितकर, सुखवर्द्धक और दुखनिवारक है। अशांति मनुष्य में तनाव और व्याकुलता उत्पन्न करती है। तनाव से कई बीमारियां होती हैं- उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदयाघात, मस्तिष्क आघात आदि तनाव के दुष्परिणाम हैं। शांति स्वास्थ्यवर्द्धक है और अशांति स्वास्थ्यनाशक।
जैन दर्शन शांतिवादी है, ‘जियो और जीने दो’ में आस्था रखता है। बौद्ध दर्शन के आष्टांगिक दर्शन के सम्यक वाक्, सम्यक कर्म, सम्यक व्यवहार, सम्यक समाधि आदि भी शांति का संदेश देते हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर प्रकृतिवादी थे और वन-प्रांत में स्थित उनका शांति निकेतन कोलाहल से दूर, शांति का स्थल था। नेहरू का पंचशील का सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय शांति का परिचायक था।
हम सभी शांति के अभिलाषी हैं। एक बार को धन का अभाव उतना नहीं सालता, जितना अशांति दुख देती है। कहा भी जाता है, कुछ भी करो, लेकिन अपनी मानसिक शांति को बनाए रखो। जो शांत हैं, वे लगन से काम कर बड़े से बड़े लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। जो छोटी-छोटी बात पर भी अशांत और बेचैन बने रहते हैं, उनके हाथ से सब फिसलता जाता है।
सिखाने वाले और सीखे जाने वाले विषय के प्रति श्रद्धावान होना ही चाहिए, तभी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। सिखाने वाले की योग्यता में विश्वास न हो और विषय के प्रति अरुचि हो, विषय मनचीता न हो तो समय भले नष्ट होता हो, पर सीखा तो कम से कम नहीं ही जा सकता। इसलिए सिखाने वाले को गुरु, शिक्षक, आचार्य की संज्ञा दी जाती है और वह शिष्य विद्यार्थी, अध्येता के सदैव प्रणम्य ही होता है।
सीखने की शुरुआत प्रणाम, नमस्ते और राम-राम या दुआ-सलाम से होती है। एक का आसन ऊंचा और दूसरे का कुछ कमतर होता है। बराबरी के आसन पर बैठकर सीखा नहीं जाता। हां, अपने अनुभव बांटे भले जा सकते हों। लेकिन सिखाने वाले के बीच उचित दूरी और एक-दूसरे के प्रति विश्वास, आस्था और श्रद्धा बने रहना बहुत आवश्यक है।
जिन्होंने अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करने का अभ्यास किया है, यानी जो अभ्यासी हैं, कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों को अपने वश में, अनुशासन में रखते हैं, इंद्रियां उन पर हावी नहीं होतीं, बल्कि इंद्रियों का नियमन उनके हाथों में होता है। मन उन्हें नहीं नचाता, बल्कि वे मन को अपने अनुसार चलाते हैं। गोपियों की तरह हम सबके पास भी एक ही मन होता है, जिसे निर्दिष्ट कार्य में लगा देना होता है।
‘ऊधो मन न भए दस-बीस, एक हतो सो गयो गयो, श्याम संग को अवराधे ईश’। जब मन एक कार्य में लग जाएगा तो इधर-उधर भटकने की गुंजाइश कम होगी। खाली दिमाग शैतान का घर होता है और खाली जगह में घास-फूस, खर-पतवार जल्दी उग आते हैं, तो मन और दिमाग को हमेशा किसी न किसी उपयोगी कार्य में लगाए ही रखना चाहिए।
क्या संसारी सूचनाएं ही ज्ञान का पर्याय हैं? हम सभी दिन भर घटनाओं और सूचनाओं से अद्यतन होते हैं। क्या यह सब ज्ञान के क्षेत्र में आता है? क्या, कौन, कहां, कब, नाम, स्थान, समय को भले ही सूचित करते हों, सतही सूचना देते हों, पर जब तक इनके साथ क्यों, कैसे, किस प्रकार नहीं जुड़ जाता, तब तक ज्ञान अपूर्ण ही रहता है। ‘अधजल गगरी’ की तरह छलकता और ‘थोथे चने’ की तरह घना बजता ही रहता है।
इसमें गहराई नहीं होती। सांसारिक मायाजाल से परे जब सत चित आनंद में ध्यान लगता है, जीवन का उद्देश्य समझ आता है। इस दुनिया में क्यों आए हैं, का सार समझ आता है। सबके प्रति सौहार्द जन्मता है। बंजारे-सा मन हो जाता है। मन झूम-झूम गाने लगता है। कौन कह रहा कि बंजारों-सा ये जीवन बेकार है? ‘मैं सबका हूं, सब मेरे हैं, सबसे मुझको प्यार है’ का उद्घोष होता है। पूरी वसुधा कुटुंबवत लगने लगती है। अमृत बरसता है। सब उसके आनंद में मगन हो जाते हैं, तब उसे दिव्य ज्ञान प्राप्ति कहा जाता है। ऐसे दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर लंबे समय तक परम शांति अनुभव की जाती है।
शांतचित्त रहने के लिए कार्य के आरंभ के समय प्रार्थना शांतिपूर्वक कर्म में संलग्न होने की प्रेरणा देती है। यह आवश्यक नहीं कि धार्मिक या ईश प्रार्थना ही हो। ऐसी प्रार्थना, जो आत्मबल दे, वह भी शांतिदायक है। शब्दहीन प्रार्थना भी शांति देती है। इसलिए हमें चाहिए कि सभी श्रद्धावान, मन सहित इंद्रियों को संयमित रखें और दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर लंबे समय तक परम शांति को प्राप्त करें।