एकता कानूनगो बक्षी
इतिहास हो गए आदिकाल से अगर हम आज के दौर की तुलना करें तो हम और हमारा समाज अब अधिक सुविधाजनक स्थिति में आ गए हैं। कहा गया है कि आवश्यकता आविष्कारों की जननी होती है। मनुष्य ने अपने जीवन को सुगम और बेहतर बनाने की आकांक्षा से लगातार संघर्ष और मेहनत की है। अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए आविष्कार किए और साधन जुटाए हैं। अब तो हर सुख के लिए विकल्पों की उपलब्धता है।
दिनचर्या में ही हम लगातार एक चीज का चुनाव और दूसरी चीज को अपनी सूची में से हटा रहे होते हैं। कोई सामान्य-सी चीज हो या बहुत महत्त्वपूर्ण वस्तु, जब चाहें विकल्प का लाभ लेकर उसकी जगह उस से बेहतर चुन कर जीवन मे खुशियां, सुख, संतुष्टि ला सकते हैं।
यह भी बड़ी दिलचस्प बात लगेगी कि नहाने का साबुन हो, हमारी पोशाक, हमारा भोजन या घर, हमारी गाड़ी, नागरिकता, नौकरी, यहां तक कि इन दिनों हमारे शुभचिंतकों और आत्मीयों की सूची में भी हम अपनी रुचि और पसंद से चुनाव और बदलाव कर सकते हैं।
कुछ चीजें चाहे अभी आभासी दुनिया में ही संभव हों, लेकिन अब वह वक्त भी दूर नहीं कि एक बटन दबा कर हम वास्तविक जीवन में भी गैरजरूरी चीजों को दरकिनार कर सकेंगे। खुद को सुदृढ़ और खुश रखने के लिए हमारे पास बेहतरीन विकल्पों से भरी दुनिया जो उपलब्ध है। लेकिन क्या विकल्पों के महासागर से सच्चे मोती खोज लाने का सामर्थ्य और समझ हममें मौजूद है?
संभावना और अवसरों का सैलाब होते हुए भी कभी-कभी हमारी खुशियों और संतुष्टि का ग्राफ बहुत ऊपर नहीं जा पाता। आसपास नजर घुमाते हैं तो हमें सर्वश्रेष्ठ की उम्मीद लिए हुए अपने वर्तमान से हताश, बेचैन अनेक लोग दिलों में हसरतों का पुलिंदा लिए मिल जाएंगे। यहां बात ‘थोड़ा है थोड़े की जरूरत है’ वाली निर्मलता से भरी मासूम दुनिया की नहीं है। यहां बहुत कुछ होते हुए भी और भी बहुत कुछ पा लेने की बेचैनी की बात है।
यह सच है कि बेहतर भविष्य के सपने देखने से जहां सकारात्मक संसार की रचना होती है, वहीं ऐसे सपने देखते हुए अपने वर्तमान को पूरी तरह नकार देना, निंदा करना केवल कुंठित समाज की ही रचना कर सकता है। इस तरह के रवैए को किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं कर सकते। समाज को कुंठित करती यह बीमारी हर उम्र, हर पृष्ठभूमि में तीव्रता से फैलती हुई नजर आती है।
एक बात और गौर करने वाली है कि जिसके पास जितने अधिक अवसर होते हैं, सामर्थ्य होता है, उसमें उतना अधिक कुंठित होने की संभावना बढ़ जाती है। यह रोग संक्रामक भी है। अपने क्षेत्र में शीर्ष पर बैठे व्यक्ति भी अपने कार्यक्षेत्र के बारे में उदासीन रवैया अपना सकते हैं, जिस काम के द्वारा उन्हें सम्मान और जीवन को दिशा, उद्देश्य मिला है, उसके बारे में ही नकारात्मक टिप्पणी देकर नए लोगों को भी हतोत्साहित करने का काम करने लगते हैं।
कई बार युवा सीखने-समझने के प्रारंभिक दौर में कम समय में अधिक की लालसा के चलते अपने काम की ही निंदा करने लगते हैं। विद्यार्थी और उनके अभिभावक परीक्षा में थोड़े से कम अंक आने पर अपना सब कुछ खो जाने जैसा महसूस करने लगते हैं।
एक कहानी बचपन में सुनी थी। संपन्न और समृद्ध होने की आकांक्षा में एक व्यक्ति ने तप किया तो ईश्वर से उसे वरदान मिला कि वह जिस चीज को हाथ से छूकर कामना करेगा, वैसा ही घटित होगा। सोने की चाहत रखने वाले उस व्यक्ति ने लालच में खुद को छू लिया। परिणामस्वरूप हमेशा के लिए वह सोने का पुतला बन जाता है। इस दंतकथा में सच्चाई हो न हो, पर संदेश तो मिलता ही है।
असंतुष्टि और बेहतरी की बेचैनी लिए हम अपने वर्तमान, भूतकाल, आसपास की चीजो को, अपनों को हमेशा कमतर या बेहतर होने की निगाह से देखते रहते हैं। यह भीतर ही भीतर हमारी खुद के प्रति आस्था को खत्म करता है। स्वयं की स्वाभाविकता को खारिज करते रहते हैं। हद तो यह है कि बेहतरी की तलाश में खुद को एक विकल्प बनाने लगते हैं।
गलत रास्ते चुनते हैं और अनावश्यक निराशा, कुंठा में खुद को और दूसरों को धकेल देते हैं। जीवन में सुख, संतुष्टि या सफल होने के लिए अंधी दौड़ में शामिल होना जरूरी नहीं है, बल्कि आनंद और कुंठा के रास्तों में से सही विकल्प की पहचान करना जरूरी होगा।