मोहन वर्मा
दरअसल, कई बार जिसे हम महत्त्वहीन मान लेते हैं, वे ही कई बार हमें ज्ञान गंगा के ऐसे मोती दे देते हैं कि हम धन्य हो जाते है। अब ये संदेश पढ़ते हुए वैसे तमाम डाक्टरों की याद आना लाजिमी है, जिन्हें डाक्टर बनाने में मेंढकों की तमाम पीढ़ियां खप गर्इं। डाक्टर बनाने में जीवन गंवाने वाले मेंढकों का योगदान रहा है, मगर इन बेचारों का कोई ‘महोत्सव’ नहीं होता कि उन सबको कोई याद करे।
कई बार बात इशारों में कही जाती है और उसका निहितार्थ दूसरा होता है। अब किसी का कहा यह वाक्य कि कुएं में उछलता हुआ हर मेंढक क्रांतिकारी होता है, सिर्फ कुएं में उछलते मेंढकों के लिए ही नहीं कहा गया, बल्कि उबलते पानी के जार में शांत बैठे मेंढकों, होड़ में दौड़ते और आए दिन टर्र-टर्र करते रहने वाले उन तमाम मेंढकों और कथित मेंढक जैसों के लिए कहा गया है जो आंखों और कानों से बाधित कुछ देख या सुन नहीं पा रहे हैं।
ऐसा लगता है कि यह समय क्रांतिकारी का नहीं, अहंकारी का है। न तो किसी को किसी क्रांतिकारी से कोई लेना-देना है, न क्रांति से हम भले हमारा अहम भला। हमें सब समझते हैं। सबको अपना देखना चाहिए। सीखने और बदलने को किसी से कुछ भी सीखा जा सकता है और हाले-बेरहम से लेकर कायनात तक सब कुछ बदला जा सकता है। मगर मनचाहा सब हो जाएगा तो रोने को क्या बचेगा? विद्वान मित्र तरकश में तीर लिए तैयार बैठे होंगे कि अब मेंढकों से ही सीखना बाकी रह गया है!
आज हम सब एक अंधेरी दौड़ में शामिल हैं, जिसमें हमारे अपने समझे जाने वाले शुभचिंतक ही शोर मचा-मचा कर हमें दौड़ से बाहर करके खुद दौड़ जीतने पर आमादा हैं। ऐसे में ये ‘क्रांतिकारी’ मेंढक ही हमें हौसला देते है। याद किया जा सकता है कि मेंढकों की दौड़ की वह कहानी, जिसमें दौड़ देखने जमा हुई भीड़ के हो-हल्ले के बीच आखिर एक मेंढक ने दौड़ जीत ही ली और जब उससे उसकी जीत का राज पूछा जाने लगा तो पता चला वह कान से सुनने से बाधित है, कुछ सुन नहीं पा रहा था। तो इसके मद्देनजर क्यों नहीं सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने के बारे में सोचा जाए?
आज हर तरफ मेंढकों की आवाजें सुनाई देती हैं। भरी गर्मी हो या कड़ाके की सर्दी। अब इसे सुनकर अगर हम ये समझें कि बस बारिश आई ही समझो तो ये हमारी गलतफहमी है। ये नकली मेंढकों की टर्र-टर्र हमारा ध्यान भटकाने के लिए होती हैं। ये दरअसल अहंकारियों के स्वर होते हैं। इस बात को समझना जरूरी है। हर मौसम को अपनी निगाहों से देखना और अपना रास्ता तय करना चाहिए।
कहते है, जो जहां होता है, खुश नहीं होता। व्यवसाय करने वाला नौकरी चाहता है और नौकरीपेशा व्यक्ति व्यवसाय करना चाहता है। व्यवसायी प्रतिद्वंद्वी से परेशान है तो बेरोजगार अपनी तंगहाल जिंदगी से। मगर बदलाव के लिए शिद्दत से कोशिश करने की सीख भी इन कुएं में उछलते असली क्रांतिकारियों से ही सीखी जा सकती है। आसपास के नकली लोगों से नहीं।
नकली लोग जोर से आवाज जरूर लगाते दिख सकते हैं, लेकिन जब जोखिम उठाने की बात आएगी तब वे अपने दड़बे में छिप जाते हैं और इंतजार करते हैं कि कोई दूसरा आकर विपरीत परिस्थितियों से लड़े और उन्हें भी मुश्किल से उबारें। ऐसे नकली लोगों से बचने की जरूरत है, जो अपनी करनी से अक्सर अपनी जिंदगी भी गंवा देते हैं।
एक बर्तन में मेंढक को रखकर जब पानी को गरम किया जाता है तो वह तब तक आराम से रहता है, जब तक उसे गर्मी महसूस न हो। पानी थोड़ा गरम करने पर वह कुनमुनाता है, मगर शरीर की ऊर्जा तापमान से तालमेल बैठाने में लगाने लगता है। पानी कुछ और गरम होने पर वह फिर से शरीर की ऊर्जा इकट्ठी कर गरम पानी का मुकाबला करने की कोशिश करता है। कुछ देर बाद पानी को और गरम पाकर छटपटा कर बाहर आने की कोशिश करता है, मगर तब तक उसकी सारी ऊर्जा पानी से तालमेल बैठाने में खर्च हो चुकी होती है और वहीं मर जाता है।
हम जहां हैं, वहां खुश नहीं है, मगर बदलाव के लिए पूरी शिद्दत से बाहर आकर अपनी मर्जी का करने के बजाय किसी उबलते पानी के जार में रखे मेंढक की तरह स्थितियों से तालमेल बैठाने में लगे हैं और जब बाहर आने के प्रयास शुरू करते हैं, तब तक अपनी सारी ऊर्जा जाया कर चुके होते हैं। इसीलिए चाहकर भी जिंदगी में बदलाव नहीं कर पाते। अगर लक्ष्य को पाना है तो अपने आसपास के पोखरों में टर्राने वालों को बहरे मेंढक की तरह अनसुना करना चाहिए। जिंदगी में कोई सार्थक बदलाव करना हो तो उबलते पानी के बर्तन में अपनी ऊर्जा बेकार करने के बजाय शिद्दत से बदलाव की कोशिश करने की जरूरत है।