सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
वृद्धजनों से हमें प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सदैव मार्गदर्शन मिलता है। आयु तो एक संख्या भर है, उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण से भला क्या लेना देना। पर नहीं, कुछ लोग बार-बार यह कह कर कि अब आप बूढ़े हो चुके हैं, आपकी अवस्था ढल चुकी है, इसलिए भगवान का नाम लें और एक कोने में चुपचाप पड़े रहें, बुजुर्गों को यह अहसास दिलाते हैं कि आपने अपनी जिंदगी जी ली, अब दूसरों के जीवन में दखल मत दें। एक कोने में पड़े रहें, जो मिले उसी को दया समझकर पेट भर लें।
बात-बात में अपने अनुभवों की झड़ी न लगाएं। उन्हें मौन रहने के लिए मजबूर करना अनुभवों का गला घोंटने के समान होता है। वे आयु से बड़े हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हम उन्हें फीका और उबला भोजन खाने के लिए दें। न कि उन्हें कभी अच्छा खाने को मन करे तो उन्हें जली-कटी सुनाएं।
बुजुर्गों की पहचान मानवीय दृष्टिकोण से होनी चाहिए। उनका भी मन करता है कि चार मित्रों के साथ हंस-बोल लें। कुछ रंगीन और नए कपड़े पहन लें। अपनी इच्छा से कोई गीत गुनगुना लें। किसी गाने पर ठुमका ही लगा दें। जीवन साथी जीवित है तो उनके साथ एक-दूसरे का साथ निभाने का मन करता ही है। लेकिन इसे गलत समझना और उन पर तंज कसना एक सभ्य समाज को शोभा नहीं देता।
उन्हें बात-बात में चोट पहुंचाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए कि आपकी उम्र ढल चुकी है। पारी समाप्त हो चुकी है या फिर आपके दिन अंगुलियों पर बचे हैं। इससे उनमें नीरसता, दुख, पीड़ा का भाव संचारित होता है। यह ठीक नहीं है। उन्हें जीवन जीने की उम्मीद न दे सकें, लेकिन उन्हें पल-पल सुई चुभोने जैसी बातें बिल्कुल न करें।
सच यह है कि बुजुर्ग लाचार और बेचारे नहीं होते। उन्हें सम्मान से जीने का पूरा अधिकार है। अपने जीवन का सबसे अधिक समय उन्होंने घर-परिवार को दिया होता है, मेहनत से सींचा होता है। वे घर-परिवार रूपी फुलवारी को बूंद-बूंद सींचकर सुंदर बनाते हैं। वे यों ही उम्र की ढलान तक नहीं पहुंचे हैं। अनुभवों की भट्टी में पके होते हैं। तप कर सोना बने होते हैं, निखर कर आते हैं।
इतने वर्षों तक वे परिवार को आकार ही देते रहे, औलाद को वक्त के सांचे में ढाल कर समाज के लिए उपयोगी बनाते रहे, उनके पैर मजबूत करते रहे, तमाम मारा-मारी और व्यस्तता में लगे रहे। अब जाकर फुर्सत के कुछ क्षण मिले होते हैं, तो उन्हें शांति और अपने तरीके से जीने का अधिकार देना चाहिए। वे इस ढलान पर इसलिए नहीं पहुंचे होते हैं कि हमारी खरी-खोटी सुनें। इसलिए यह आभास कराना बंद कर देना चाहिए कि वे बूढ़े हो चुके हैं।
बुजुर्गों की नजर से देखें तो उनमें अब भी बहुत दमखम बाकी होता है। वे जमाने को बदलने का दृढ़ और अविचलित आत्मविश्वास रखते हैं। वे इतने वर्षों तक दूसरों के लिए जीते रहे। ऐसी स्थिति में अगर उन्हें हर क्षण ‘बूढ़ा-बूढ़ा’ कहा जाए तो इससे उनका आत्मविश्वास टूट जाता है। सच यह है कि वे इसी समय की प्रतीक्षा में थे कि जीवन की भागदौड़ में जो पीछे छूट गया, उन सबको अब थोड़ा जी लिया जाए। उन्हें न हमारी दखलंदाजी पसंद होती है और न ही टोकाटाकी। यों धरती पर जन्म लेने वाले सभी प्राणियों को आदर और सम्मान के साथ जीने का पूरा अधिकार है। सब जीएं और सबको जीने दें।
बुजुर्ग होना सम्मान का सूचक है। जब तक मन जिंदा होता है, शरीर रूपी जीवन कायम रहता है। जिस अवस्था में जीने की इच्छा और कुछ कर गुजरने की उत्कंठा तीव्र होती है, वह अवस्था उतनी ही खूबसूरत लगने लगती है। जीवन की भागदौड़ में जो पीछे छूट गया, उससे बचे हुए को बेहतर बनाया जा सकता है। इसलिए उन्हें रोते और परेशान होते जीवन बिताने पर बाध्य नहीं करना चाहिए। जिन्होंने आजीवन हमारे लिए अपना सब कुछ स्वाहा किया हो, उनके लिए हमारा भी कुछ दायित्व बनता है। यह याद रखना चाहिए कि हमारा अस्तित्व उनसे ही है। यों भी कौन चाहेगा कि कोई भी उनके कमजोर हालत में कटाक्ष करे या उनकी उपेक्षा करे। खासतौर पर तब जब उन्होंने अपने आसपास वाले लोगों के लिए अपने सक्षम होने के दिनों में बहुत कुछ किया हो।
वृद्धजन दरअसल वटवृक्ष के समान हैं। इनकी छाया में रहने वाले लोग धूप, आंधी और अन्य विपत्तियों से बचे रहते हैं। वृद्धजनों के अनुभवों का लाभ समाज को उठाना चाहिए। भारतीय संस्कृति में गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ आश्रम माना जाता है। परिवार चाहे संयुक्त हों या एकल, उसमें बुजुर्गों की सदा आवश्यकता होती है। वरिष्ठजन अपने अनुभव का लाभ आने वाली पीढ़ी को आशीर्वाद के रूप में देते हैं। इसलिए बुजुर्ग जब तक जिएं, उन्हें खुशी देने का प्रयास होना चाहिए। यह भी याद रखते हुए कि हम भी कुछ वर्षों बाद जिंदगी की इसी ढलान से गुजरेंगे और तब हम अपने लिए शायद खुशी और संतोष का जीवन खोजेंगे।