शरद उपाध्याय
उत्सव का समय है। लगभग सभी घरों में परिवार के सामूहिक श्रम से घर चमक रहा होगा। रसोई में चढ़ी कढ़ाई ठंडी हो रही होगी। लोग पकवानों के भरे बर्तन खाली होने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। करीने से सजाई हुई गुझिया तैयार होगी। अतिथि का इंतजार होगा। त्योहारों पर खानपान के न जाने कितने तौर-तरीके प्रयोग किए गए हैं।
पकवानों के मनमोहक चित्र सोशल मीडिया पर आम हैं और फिर उन पर नाना प्रकार की टिप्पणियों में उनकी तारीफ भी मौजूद होती हैं। इस सांस्कृतिक अभ्यास के बीच त्योहारों के मौसम में तैयारी के साथ-साथ अमूमन हर परिवार इंतजार करता है। जरा-सी आहट होती है कि परिवार सजग हो जाता है।
किसी मनोनुकूल अतिथि के बजाय जब कोई अन्य अनपेक्षित आ जाता है, तो थोड़ी चुप्पी छा जाती है और सजग परिवारगण एक दूसरे का चेहरा देखते हैं। दरअसल, पिछले कुछ सालों से यह महसूस किया जा सकता है कि एक समय ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ जैसे विनोद उक्तियों के साथ ऊबे हुए हम अब अतिथियों का इंतजार करने लगे हैं। सामाजिकता का खोखलापन सभी को अंदर तक तोड़ जाता है।
त्योहार आते हैं और कई बार अतिथियों के आवागमन के बिना भी निकल जाते हैं। शुक्र है कि सोशल मीडिया ने त्योहारों की लाज बचाकर रखा हुआ है, जहां लोग कम से कम अंगुली के अल्प शारीरिक श्रम से बधाई संदेश आगे की ओर भेज कर रिश्तों की गरिमा को बनाए रखते हैं! हालांकि देश का जनसंख्या का घनत्व गहराता जा रहा है।
अभी भी प्रति वर्ग किलोमीटर व्यक्तियों की संख्या काफी बताई जाती है। पर घरों पर मिलने-जुलने वाले व्यक्तियों की दर शून्य को छूने को तैयार है। औपचारिकता बहुत बढ़ गई है। मोहल्ले जब से कालोनियों में तब्दील हुए हैं, लोगों में दूरियां बहुत बढ़ गई हैं। एक कालोनी में रहने वाले लोग अक्सर त्योहार पर आयोजित समारोह में अल्प समय पर मिल लेते हैं।
कभी मजबूरी में एक-दूसरे के घर जाने की जरूरत पड़ती है, तो घर के बाहर से ही आवाज लगाकर प्रवेश करने में इतना संकोच करते हैं, मानो वहां घर के आगे अहं की लक्ष्मणरेखा खींचकर रखी गई हो। होली पर टोलियां आती हैं, पर बाहर से आवाज लगाकर साल भर में एक बार मिलने की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। अंदर प्रांगण तक खींचकर लाई हुई नाश्ते के बर्तनों तक अहं के कदम नहीं जा पाते।
बचपन के दिनों की बात याद करें तो घर में होली की तैयारी बहुत समय पहले से शुरू हो जाती थी। घर में लोहे के बने हुए दो पीपे थे, जिनमें कुंडियां लगी हुई थीं। न जाने कितने व्यंजन बनाकर उनमें सहेज कर रखा जाता था। एक छोटा-सा ताला होता था, जो सामान बनाकर पीपे में लगा दिया जाता था। भगवान को भोग लगाना और अतिथियों के लिए बचाकर रखना मुख्य काम होता था।
सभी लोग एक-दूसरे के यहां आते-जाते थे। फिर बहुत समय तक यह विश्लेषण चलता था कि किसके घर की गुझिया अच्छी बनी, किसके घर की बेसन की चक्की मुलायम थी। होली खेलने की सुबह घर में खाना नहीं बनता था। दो-तीन बजे तक होली खेलकर निपटते थे तो सभी घरों के बने पकवान सुबह के खाने की छुट्टी कर देता था। देर तक लोग एक-दूसरे के घर में बैठे रहते। रंगों से समूचा घर सराबोर हो जाता। घर की दीवारें भी होली की खुशबू महसूस करती थीं। पिचकारियों की रंगीन कलाकारी अगली पुताई तक जिंदा रहती थीं।
अब ऐसा नहीं है। रगों की महक घर के अंदर तक पहुंच नहीं पाती। जबकि देखा जाए तो त्योहार एक अवसर है, जो अत्यधिक व्यस्त जीवन से कुछ समय निकालकर एक समाज की अवधारणा को जिंदा बनाए रखता है। वर्तमान जीवन में बढ़ते हुए अवसाद को यह अकेलापन तोड़ देता है। त्योहार का स्वागत करता व्यक्ति इस तथ्य से हैरान रह जाता है। पर परेशानी यह है कि हर व्यक्ति इस बात से अचंभित है।
हर व्यक्ति दूसरे के लिए यह सोचकर रह जाता है कि कोई उसके पास नहीं आ रहा है। सामाजिकता खत्म हो गई है। यहां हर व्यक्ति को अहं छोड़ने की जरूरत है। कोई तो शुरुआत करे! कोई तो अहं त्याग कर दूसरे की चौखट पर खड़ा होए! कोई तो अपनेपन का पत्थर उठाकर अहम के आसमान में छेद करे! गर्मजोशी एक नई शुरुआत हो सकती है।
मनोविज्ञान के हिसाब से होली ग्रंथियों के विसर्जन का त्योहार है। फाग उड़ाना, एक-दूसरे पर रंग डालना, नृत्य करना, सभी ऐसे कृत्य हैं, जिनसे व्यक्ति अपने बंधे हुए जटिल व्यक्तित्व के बंधनों को शिथिल करता है। रंग गुलाल है, आनंद उत्सव है। तल्लीनता, मस्ती, नृत्य का बड़ा सतरंगी उत्सव है। यह हंसी के फव्वारों का उल्लास का एक महोत्सव है। तो फिर एक आसान कोशिश खुद से शुरू की जाए। होली पर थोड़ा-सा अहं का पर्दा हटाकर परिचित के आंगन में जाकर एक गुझिया खाकर, एक तारीफ का शब्द कहा जाए। फिर सब देखेंगे कि संबंधों की एक नई खुशबू से जीवन कैसे महक उठेगा!