लोकेंद्रसिंह कोट
इससे दूर जाने पर ही सारे प्रपंच, विकार पैदा होते हैं। जैसे ही हम प्रकृति से दूर जाते हैं, वैसे ही हमारी समस्याओं में बढ़ोतरी होती जाती है। इसीलिए अपने देश में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि ‘सदा दीवाली साल भर, सातों वार त्योहार’। ऋषि-मुनियों ने मुख्य रूप से चार बातों पर ध्यान दिया था। पहली उत्तरायण-दक्षिणायण की गोलार्द्ध स्थिति, दूसरी चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाएं, तीसरा नक्षत्रों का भूमि पर आने वाला प्रभाव और चौथा सूर्य की अंश किरणों का मार्ग। इन सबका हमारी शरीरगत ऋतु अग्नियों के साथ संबंध होने से क्या परिणाम होता है? मन की गति इनके अनुसार यह किस तरह परिवर्तित होती है?
इन सूक्ष्म तत्त्वों का त्योहारों के निर्धारण से गहरा संबंध था। इन सबका मनुष्य के जीवन और मूल्यों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। माघ के महीने में सूर्य का महत्त्व बढ़ जाता है, क्योंकि उसकी गति उत्तरायण की ओर बढ़ती है और ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति भी हम सबको कह रही हो, अंधकार को छोड़ प्रकाश की ओर बढ़ो।
कोई भी मिलन कितना मीठा होता है, यह हम सब जानते हैं। मिलन में ही सर्वाधिक भावनाओं का आदान-प्रदान होता है। एक सैनिक लंबी ड्यूटी के बाद घर-परिवार से मिलता है तो उन पलों में क्या होता होगा, उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल ही नहीं, असंभव प्रतीत होता है। मिलन का यही स्वरूप हमारी परंपराओं में पूजा का भी होता था, इसलिए संध्या वंदन जैसी आराधना दिन के तीन मिलन बिंदुओं- सुबह, दोपहर और गोधूलि पर करने का प्रावधान है।
मिलन तमाम अन्य भावों के साथ अद्भुत प्रसन्नता देता है और ऐसे समय किसी से भी कुछ भी मांगा जाए, तो वह देने को आतुर रहता है। जैसे नदियां भी इस समय इठलाती हैं, प्रसन्न रहती हैं, क्योंकि इस समय नदियों से वाष्पन होता है, जो हमारे लिए भविष्य में बरसात की बुनियाद है। इस वाष्पन में हमारे रोग हरने की क्षमता होती है। इसलिए भी इस मौसम में नदियों में स्नान पवित्र माना जाता है। इस समय दिन बड़े होने लगते हैं तो मानव की कार्यक्षमता में भी बढ़ोतरी होती है।
असम में बिहू तो पंजाब में लोहड़ी के पीछे फसल अपनी परिपक्वता पर पहुंचना है। गुजरात में पतंग, बिहार में तिलकुट, ओड़ीशा, बंगाल, झारखंड में टुसू, तमिलनाडू में पोंगल के भिन्न-भिन्न रूपों में उल्लास बहता है। खिचड़ी, तिल, गुड़ आदि इस समय का श्रेष्ठ निवाला माना जाता है। ये तीनों पाचन क्षमता, प्रतिरोधक क्षमता विकास से जुड़े हुए हैं, साथ ही इनकी तासीर भी गर्म रहती है तो ठंड में शरीर के ताप को संतुलित बनाए रखने में भी मदद करती है।
सूर्य की सारे ग्रह-नक्षत्र परिक्रमा करते हैं। सूर्य का महत्त्व यही है कि उसके बगैर जीवन की कल्पना करना असंभव है। ऋग्वेद में कहा गया है कि संसार की समस्त चर, अचर के लिए सूर्य आत्मा है। सूर्य को कृतज्ञता व्यक्त करने से संबंधित योग सूर्य नमस्कार भी उस अतुलनीय क्षमता को नमन करना है, जिसकी वजह से हम सब हैं। सूर्य के एक आयाम बदलने पर संक्रांति घटती है, उसी तरह जैसे अंधकार से प्रकाश में आने, अज्ञान से ज्ञान में आने पर हमारा भी आयाम बदल जाता है।
जीवन ज्ञान पर आधारित है, सूचनाओं पर नहीं। ज्ञान का जीवन में दृढ़ होना ही प्रकाशवान हो जाना है। जैसे सूर्य से यह सृष्टि प्रकाशित होकर खिलती है, चलायमान होती है, वैसे ही ज्ञान का प्रकाश हमें आगे की ओर बढ़ाता है, जड़ता और विकारों से बचाता है। शिशिर ऋतु में वातावरण में सूर्य के अमृत तत्त्व की प्रधानता रहती है। हाल ही में बीते मकर संक्रांति के अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है। शाक, फल, वनस्पतियां इस अवधि में अमृत तत्त्व को अपने में सर्वाधिक आकर्षित करती हैं और उसी से पुष्ट होती हैं।
माना जाता है कि रामायण काल में तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भारद्वाज का आश्रम और साधना आरण्यक था। उनके सान्निध्य में माघ महीने में भारत के अनेक क्षेत्रों के आध्यात्मिक मुमुक्षु साधक एकत्रित होते थे। वे प्रयाग में एक मास का कल्पवास करते थे और चंद्रायण तप के साथ महाविद्या की साधना करते थे। तुलसीदास के रामचरितमानस में भी इसका उल्लेख मिलता है- ‘माघ मकर गत रवि जब होई, तीरथ-पतिहि आव सब कोई।’ आगे फिर कहा गया है- ‘ऐहि प्रकार भरि माघ नहाही, पुनि सब निज-निज आश्रम जाहीं।’ इसका अर्थ है, माघ महीने में सभी साधक-तपस्वी प्रयाग में आकर अपनी साधना पूरी करते थे और फिर यथाक्रम वापस लौटते थे। साधना के लिए श्रेष्ठ काल का तमगा इसी समय को हासिल है।